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नयचक्र
स्वमावस्य नामान्तरं ब्रूत 'त' इत्यादि
तच्चं तह परमटुं दव्वसहावं तहेव परमपरं ।
धेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुति अभिहाणा ॥४॥ स्वभावस्वभाविनोाप्तिं दर्शयति
एदेहि तिविहलोगं णिप्पण्णं खलु णहेण तमलोयं । तेणेदे परमट्ठा भणिया सब्भावदरसीहि ॥५॥ ते पुण कारणभूदा लोयं कज्जं वियाण णिच्छयदो। अण्णो को वि ण भणिओ तेर्सि इह कारणं कज्ज ॥६॥
स्वभाव-स्वभाववान्में सर्वथा अभेद हो तो 'स्वभाव-स्वभाववान् का भेद व्यवहार भी नहीं बन सकता। किन्तु स्वभाव और स्वभाववान्के प्रदेश जुदे-जदे नहीं होते। यदि कल्पनाके द्वारा स्वभाववान में से उसके स्वभावको अलग कर लिया जा सके तो स्वभाववान नामकी कोई वस्तु शेष नहीं बचेगी। जैसे अग्नि में से यदि उष्णको अलग किया जा सके तो अग्निका कोई अस्तित्व शेष नहीं रह सकता। अतः सब द्रव्य अपने स्वतःसिद्ध स्वभावको लिये हुए सदा तन्मय हो रहते हैं। न तो स्वभावसे भिन्न कोई स्वभाववानकी स्वतन्त्र सत्ता है और न स्वभाववान्से भिन्न स्वभावको कोई स्वतन्त्र सत्ता है। अत: वास्तवमें वे दो नहीं हैं। किन्तु तादात्म्य रूप एक ही वस्तु है। इसीका कथन आचार्य समन्तभद्रने आप्तमीमांसा"कारिका ७१-७२ में किया है कि द्रव्य
और पर्यायमें ऐक्य है क्योंकि वे भिन्न-भिन्न नहीं है फिर भी,दोनोंके स्वरूप, नाम, संख्या और प्रयोजन आदि भिन्न होनेसे भिन्नता भी है किन्तु सर्वथा भिन्न नहीं हैं।
आगे स्वभावके नामान्तर कहते हैंतत्त्व, परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, पर-अपर ध्येय, शुद्ध, परम, ये सब एकार्थवाची हैं ॥ ४ ॥
विशेषार्थ-ग्रन्थकारने स्वभावके प्रसंगसे उक्त शब्दोंको द्रव्यस्वभावका वाचक कहा है। इनमेंसे तत्त्व और परमार्थ तो स्पष्ट ही हैं। पूज्यपाद स्वामीने अपने "समाधितन्त्र" श्लोक ३० में 'तत्तत्वं परमात्मनः' कहा है। यहाँ तत्त्वका अर्थ स्वरूप ही है। इसी तरह परमार्थका अर्थ भी यथार्थ स्वरूप होता है। ध्यान भी उसीका किया जाता है, इसलिए उसे ध्येय शब्दसे भी कहा है। वह ध्येय पर और अपरके भेदसे दो प्रकारका होता है । क्योंकि ध्यान परमात्माका भी किया जाता है और स्वयं अपने में भी तन्मय हुआ जाता है। दोनों में ध्येय पर और स्वका स्वरूप ही है अतः पर ध्येय और अपर ध्येयको भी द्रव्यस्वभावका वाचक कहा है। तथा द्रव्यस्वभाव तो शुद्ध होता ही है, इसलिए उसे शुद्ध शब्दसे भी कहा है। इस तरह उक्त सब शब्द द्रव्यस्वभावके वाचक हैं।
आगे स्वभाव और स्वभाववान्की व्याप्ति दिसलाते हैं
इन्हीं छहों द्रव्योंसे तीनों लोक बने हुए हैं। तथा आकाश द्रव्यसे अलोक बना हुआ है। इसीसे सर्वदर्शी जिनेन्द्रदेवने इन्हें परम अर्थ कहा है। वे सब द्रव्य कारणरूप हैं और लोक उनका कार्य है। निश्चय नयसे न तो उनका कोई अन्य कारण ही है और न कार्य ही है ।। ५-६ ।।
विशेषार्थ"त्रिलोकसारैके प्रारम्भमें लिखा है कि यह आकाश सब ओरसे अनन्त है। उस अनन्त आकाशके मध्य में लोक है। वह लोक अकृत्रिम है उसे किसीने किसी समय बनाया नहीं है। इसीलिए न उसकी आदि है और न अन्त है। वह अनादि-अनन्त है। स्वभाव से ही बना हुआ है। जितने आकाशमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य तथा जीवों और पुदगलोंका आवागमन होता है, उतना लोकाकाश है:शेष सब अलोकाकाश है। इसीसे छहों द्रव्योंको लोकका कारण और लोकको उनका कार्य कहा है।
१. 'समवाओ पंचण्हं समउत्ति जिणत्तमेहि पण्णत्तं । सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं ॥३॥' -पञ्चास्ति । णिप्पणं जेहि तहलक्कं'–पञ्चास्ति०, गा० ५ ।
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