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श्री-माइल्लघवल-कृत द्रव्यस्वभावप्रकाशक
नयचक्र
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृतशास्त्रात् सारार्थ परिगृह्य स्वपरोपकाराय द्रव्यस्वभावप्रकाशकं नयचक्रं मोक्षमार्ग कुर्वन् गायोकर्ता निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं शिष्टाचारप्रतिपालनं पुण्यावाप्तिास्तिकतापरिहारः फळमभिलषन् शास्त्रादौ इष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह 'दव्वा' इति ।
दवा विस्ससहावा लोगागासे सुसंठिया जेहिं । दिट्ठा तियालविसया वंदेहं ते जिणे सिद्धे ॥१॥
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृत शास्त्रसे सारभूत अर्थको ग्रहण करके. अपने और दूसरोंके उपकारके लिए, द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र नामक ग्रन्थ के, जो कि मोक्षका मार्ग है. रचयिता शास्त्रकी निर्विघ्नरूपसे समाप्ति. शिष्टों के आचारका पालन, पुण्यकी प्राप्ति और नास्तिकताका परिहार रूप फलकी इच्छासे शास्त्रके प्रारम्भमें इष्ट देवता विशेषको नमस्कार करते हुए गाथा कहते हैं
लोकाकाशमें सम्यक् रूपसे स्थित विश्वस्वरूप त्रिकालवर्ती द्रव्योंको जिन्होंने देखा उन जिनों और सिद्धोंको मैं नमस्कार करता हूं ।।१।।
विशेषार्थ-इस ग्रन्थका नाम द्रव्यस्वभावप्रकाशक है ,क्योंकि इसमें द्रव्योंके स्वभावपर प्रकाश डाला गया है। और द्रव्यों के स्वभावका ठीक-ठीक परिज्ञान नयोंका सम्यक परिज्ञान हुए बिना नहीं हो सकता। इसीसे आचार्य देवसेनने अपने नय चक्रके प्रारम्भमें कहा है कि जैसे धर्महीन मनुष्य सुख चाहता है या प्यासा मनुष्य पानी के बिना प्यास बुझाना चाहता है वैसे ही मूढ़ मनुष्य नयों के ज्ञानके बिना द्रव्योंका ज्ञान करना चाहता है। अतः जैसे धर्मके बिना सुख नहीं हो सकता और पानीके बिना प्यास नहीं बुझ सकती वैसे हो नयोंके ज्ञानके बिना द्रव्योंके स्वरूपका वोध नहीं हो सकता। तथा द्रव्योंके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान हुए बिना सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता। इसीसे ग्रन्थकारने इस ग्रन्थको मोक्षका मार्ग कहा है। सम्यग्दर्शनके बिना मोक्षमार्ग नहीं और वस्तु स्वरूपकी उपलब्धिके बिना सम्यग्दर्शन नहीं तथा नयोंके ज्ञानके बिना वस्तु स्वरूपकी उपलब्धि नहीं। इसीलिए इस ग्रन्थके रचयिताने आचार्य कुन्दकुन्दकै ग्रन्थोंमें वर्णित द्रव्यस्वभावको और आचार्य देवसेनके नयचक्रको ग्रहण करके इस ग्रन्थ की रचना की है। जैसे द्रव्यों के स्वभावको समझने के लिए कुन्दकुन्दाचार्यके ग्रन्थ अनमोल है वैसे ही नयोंके स्वरूपको समझनेके लिए देवसेनाचार्यका नयचक्र अनमोल है । इसीसे वह प्रायः पूरा इस ग्रन्थमें ज्योंका त्यों समाविष्ट कर लिया गया है। इस ग्रन्थको प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार अपने इष्ट देवताका स्तवन करनेसे पूर्व उसके चार उद्देश्य बतलाते है। उनमें से मुख्य उद्देश्य है शास्त्र बिना किसी विघ्नके पूर्ण हो-उसकी पूर्ति में कोई विघ्नबाधा उपस्थित न हो। अन्य उद्देश्य है
१. शास्त्राणां मु० । २. ग्रन्थकर्ता अ० ख० ज०म० । ३. तया ख० मु० ज० । ४. -लन अ० क० ख० । ५. नास्तिकतापरिहार अ. क. खः । 'शिष्टाचारपरिपालनार्थम, नास्तिकतापरिहारार्थम्, निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यर्थं च परमेष्ठिगणस्तोत्रमित्यन्ये ।'-आ० ५० पृ० ११। त. श्लो० वा. पृ० , २ । 'नास्तिक्यपरिहारस्तु शिष्टाचारप्रपालनम । पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नं शास्त्रादौ तेन संस्तुतिः ।। पंचास्ति. जयसेन टीका, पृ० ५ : 'नास्तिकत्वपरीहार: शास्त्रादावाप्तसंस्तवात् ॥' अनगारधर्मा० टी०, पृ० ।
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