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प्रस्तावना
३१
ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरणरूप प्राप्ति जिन्हें हो गयी है, उन्हें तो पुद्गलसंयोगजनित अनेकरूपता को कहनेवाला व्यवहारनय कुछ प्रयोजनीय नहीं है। किन्तु जब तक प्राप्ति नहीं हुई है, तब तक यथा पदवी प्रयोजनीय है। अर्थात् जब तक यथार्थ ज्ञान, श्रद्धान की प्राप्ति रूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति न हुई हो, तब तक यथार्थ उपदेशदाता जिन-वचनों का सुनना, धारण करना तथा जिन-वचन के प्रवक्ता जिन-गुरु की भक्ति, जिनबिम्ब का दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्ग में प्रवृत्त होना प्रयोजनीय है। और जिनको श्रद्धान, ज्ञान तो हुआ, पर साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई, तब तक पूर्व कथित कार्य पर द्रव्य का आलम्बन छोड़ने रूप अणुव्रत और महाव्रत का ग्रहण, समिति, गुप्ति, पंच परमेष्ठी का ध्यान आदि करना तथा वैसा करनेवालों की संगति करना और विशेष जानने के लिए शास्त्रों का अभ्यास करना आदि व्यवहार मार्ग में स्वयं प्रवृत्त होना, दूसरों को प्रवृत्त कराना इत्यादि व्यवहारनय का उपदेश प्रयोजनीय है। व्यवहारनय को कथंचित् असत्यार्थ कहा है। यदि उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे, तो शुभोपयोग रूप व्यवहार तो छूट जाए और शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति न होने से अशुभोपयोग में ही स्वेच्छाचार रूप प्रवृत्ति करने से नरकादि गतिरूप संसार में ही भ्रमण करना पड़ेगा। इसलिए साक्षात् शुद्धनय के विषयभूत शुद्धात्मा की प्राप्ति जब तक न हो, तब तक व्यवहार भी प्रयोजनीय है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने अपने 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' के प्रारम्भ में कहा है कि जो व्यवहार और निश्चय दोनों को जानकर तात्त्विक रूप से मध्यस्थ रहता है, वही उपदेश का सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है। क्योंकि 'समयसार' को नयपक्षातीत कहा है। जब समयसार नयपक्षातीत है, तो नयों की क्या आवश्यकता है? ऐसा प्रश्न हो सकता है। इसका उत्तर यह है कि नयों को अपनाये बिना नयपक्षातीत होना सम्भव नहीं है। इसीलिए नयों का परिज्ञान आवश्यक है। व्यवहारनय का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ है
"भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः।' जो भेद और उपचार से वस्तु का व्यवहार करता है, वह व्यवहारनय है। उसके तीन भेद हैं-सद्भूत, असद्भूत और उपचरित। सद्भूत व्यवहानय भेद का उत्पादक है, अखण्ड वस्तु में भेद-कल्पना करता है; जैसे जीव के ज्ञानादि गुण हैं। असद्भूत व्यवहारनय उपचार का उत्पादक है; जैसे मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहना है। और उपचरित व्यवहारनय या उपचरितासद्भूत व्यवहारनय उपचार में भी उपचार का उत्पादक है; जैसे महल, मकान मेरे हैं। यह भेद और उपचार रूप अर्थ अपरमार्थ है, असत्यार्थ है। अभेद और अनुपचार रूप अर्थ ही परमार्थ है, सत्यार्थ है। निश्चयनय अभेद और अनुपचार रूप अर्थ का निश्चय करता है। इस तरह निश्चयनय से वस्तु एक अखण्ड रूप है। फिर भी शुद्ध वस्तु व्यवहारनय के विकल्पों से उसी तरह आच्छादित है; जैसे सूर्य का बिम्ब केतु से आच्छादित होता है।
ऐसी स्थिति में यह प्रश्न होता है कि फिर व्यवहार क्यों आवश्यक है? असत् कल्पनाओं की निवृत्ति के लिए और रत्नत्रय की सिद्धि के लिए व्यवहार आवश्यक है। रत्नत्रय से ही परमार्थ की सिद्धि होती है। प्रश्न हो सकता है कि परमार्थ तो स्वभावसिद्ध है। रत्नत्रय से उसकी सिद्धि कैसे होती है? यदि रत्नत्रय से परमार्थ को सर्वथा भिन्न माना जाए, तो निश्चय का अभाव हो जाए, और यदि सर्वथा अभिन्न माना जाए, तो भेद-व्यवहार का अभाव हो जाए; इसलिए कथंचित् भेद से ही उसकी सिद्धि होती है।
इस तरह जब तक व्यवहार और निश्चय से तत्त्व की अनुभूति है, तब तक वह परोक्षानुभूति ही है; क्योंकि नय श्रुतज्ञान के विकल्प हैं और श्रुतज्ञान परोक्ष है। इसलिए प्रत्यक्ष अनुभूति नयपक्षातीत है। इस पर पुनः प्रश्न होता है-तब तो ये दोनों ही नय समान होने से दोनों ही पूज्य हैं? किन्तु ऐसी बात नहीं है। व्यवहारनय यदि पूज्य है, तो निश्चयनय पूज्यतम है।
शंका-प्रमाण तो व्यवहार और निश्चय दोनों को ही ग्रहण करता है, अतः उसका विषय अधिक होने से वह पूज्यतम क्यों नहीं है?
उत्तर-नहीं, क्योंकि वह आत्मा को नयपक्षातीत करने में असमर्थ है। इसका खुलासा इस प्रकार है
यद्यपि प्रमाण निश्चय के भी विषय को ग्रहण करता है, किन्तु वह व्यवहारनय के विषय का व्यवच्छेद नहीं करता और जब तक वह ऐसा नहीं करता तब तक व्यवहार रूप क्रिया को रोक नहीं सकता। इसीलिए प्रमाण आत्मा को ज्ञानानुभूति में स्थापित करने में असमर्थ है। किन्तु निश्चयनय एकत्व को लाकर आत्मा को
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