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नयचक्र
नहीं रहता। वस्तु तो द्रव्य है द्रव्य के निज भाव द्रव्य में ही रहते हैं। नैमित्तिक भाव तो नैमित्तिक ही है, उनका तो अभाव होता ही है।
निश्चयनय और व्यवहारनय नय के मूल भेद निश्चपनय और व्यवहारनय हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है
ववहारोऽभूदत्यो भूदत्यो देसिदो हु सुद्धणओ। सुद्धणयमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवदि जीवो ॥११॥
-समयसार इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है-सब ही व्यवहारनय अभूतार्थ होने से अभूतार्थ को प्रकट करता है। एक शुद्धनय ही भूतार्थ होने से भूतार्थ-सत्यार्थ का कथन करता है। जैसे बहुत अधिक कीचड़ के मिलने से जिसकी स्वाभाविक स्वच्छता लुप्त जैसी हो गयी है, ऐसे जल को देखनेवाले अविवेकी पुरुष जल और कीचड़ का भेद न करके उस मैले जल का ही पान करते हैं। किन्तु कुछ विवेकी पुरुष उस पानी में अपने हाथ से निर्मली का चूर्ण डालकर जल और कीचड़ को भिन्न करके अपने पुरुषार्थ से जल की स्वच्छता को प्रकट करके स्वच्छ जल का ही पान करते हैं। उसी तरह प्रबल कर्म के संयोग से जिसका एक स्वाभाविक ज्ञायक भाव लुप्त जैसा हो गया है, ऐसी आत्मा का अनुभव करनेवाले पुरुष आत्मा और कर्मजन्य भावों में भेद न करके व्यवहार से विमोहित होकर अनेक रूप आत्मा का अनुभवन करते हैं। किन्तु भूतार्थदर्शी महात्मा अपनी बुद्धि से प्रयुक्त शुद्धनय के अनुसार होनेवाले ज्ञान मात्र से आत्मा और कर्म में विवेक करके, अपने पुरुषार्थ से प्रकट किये गये स्वाभाविक एक ज्ञायक स्वभाव होने से जिसमें एक ज्ञायक भाव प्रकाशमान है, ऐसी शुद्ध आत्मा का अनुभव करते हैं। इसलिए जो भूतार्थ शुद्धनय का आश्रय लेते हैं, वे सम्यक् द्रष्टा होने से सम्यग्दृष्टि होते हैं; दूसरे लोग नहीं। यह शुद्धनय निर्मली के तुल्य है। अतः जो कर्म से भिन्न आत्मा का दर्शन करना चाहते हैं, उन्हें व्यवहारनय का अनुसरण नहीं करना चाहिए।
आशय यह है कि भूतार्थ कहते हैं-सत्यार्थ को। भूत अर्थात् पदार्थ में रहनेवाला 'अर्थ' अर्थात् भाव, उसे जो प्रकाशित करता है वह भूतार्थ है, सत्यवादी है। भूतार्थनय ही हमें यह बतलाता है कि जीव और कर्म का अनादि काल से एकक्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध है। दोनों एक जैसे दीखते हैं, फिर भी निश्चयनय आत्मद्रव्य को शरीरादि परद्रव्यों से भिन्न ही प्रकट करता है। वह भिन्नता मुक्तिदशा में व्यक्त होती है, इसलिए निश्चयनय सत्यार्थ है। तथा अभूतार्थ कहते हैं असत्यार्थ को। अभूतार्थ अर्थात् जो पदार्थ में नहीं होता, ऐसा अर्थ अर्थात् भाव। उसे जो कहे उसे अभूतार्थ कहते हैं। जैसे जीव और पुद्गल की सत्ता भिन्न है, स्वभाव भिन्न है, प्रदेश भिन्न है। फिर भी एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध होने से आत्मा और शरीर आदि परद्रव्य को एक कहा जाता है। अतः व्यवहारनय असत्यार्थ है। किन्तु तब क्या व्यवहारनय किसी भी दशा में किसी के लिए भी उपयोगी नहीं है? ऐसी बात नहीं है, व्यवहारनय भी किसी-किसी को किसी काल में प्रयोजनीय है, सर्वथा निषेध करने योग्य नहीं है
सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ठिदा भावे ॥१२॥
-समयसार इस गाथा के भावार्थ में पं. जयचन्दजी ने लिखा है-लोक में सोने के सोलह ताव प्रसिद्ध हैं। उनमें पन्द्रह ताव तक पर संयोग की कालिमा रहती है, तब तक उसे अशुद्ध कहते हैं। और फिर ताव देते-देते जब अन्तिम ताव उतरता है, तब सोलह ताववाला शुद्ध सोना कहलाता है। जिन जीवों को सोलहवान सोने का ज्ञान, श्रद्धान तथा प्राप्ति हो चुकी है, उनको पन्द्रहवान तक का सोना प्रयोजनीय नहीं है। किन्तु जिनको सोलहवान के स्वर्ण की प्राप्ति जब तक नहीं हुई है, तब तक पन्द्रहवान तक भी प्रयोजनीय है। उसी तरह जीव पदार्थ पुद्गल के संयोग से अशुद्ध अनेकरूप हो रहा है। उसका सब परद्रव्यों से भिन्न एक ज्ञायकता मात्र का
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