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[ ६५ ] त्याग कियां बिन हिंसा टालै । तो ही कर्म निर्जरा थायोजी। हिंसा टाल्यां शुभयोग वरतै छ। तिहाँ पुण्य रा ठाठ बंधायोजी ॥६॥
-भिक्ष-ग्रन्थ रत्नाकर भाग १ पृ० ५४७. अर्थात् त्याग किये बिना हिंसा को छोड़ने से शुभयोग की प्रवृत्ति होती है, फलस्वरूप पुण्य का बंध होता है। अतः मिथ्यात्वी त्याग किये बिना अहिंसा, सत्य, अचोर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह धर्म आदि की आराधना करते हैं तो उनके निर्जरा अवश्यमेव होगी। मोक्ष के लक्ष्य से-आत्म-विश द्धि की भावना से यदि सद्अनुष्ठानिक क्रिया करते हैं तो उनके सकाम निर्जरा होगी तथा इहलोक के लिए, परलोक के लिए, कीर्ति, वर्ण, पूजा, श्लाषा के लिए यदि किसी प्रकार की सद्अनुष्ठानिक क्रिया करते हैं तो उनको अकाम निर्जरा होगो । अस्तु मिथ्यात्वी सकाम और अकाम—दोनों प्रकार की निर्जरा करने के अधिकारी है।
जिन्होंने अभी मिथ्यात्व भाव को नहीं छोड़ा है अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं किया है ; वे मिष्यात्वो अकाम निर्जरा के द्वारा मनुष्यगति और नियंचगति से मरण-प्राप्त होकर देवगति में उत्पन्न होते हैं। जैसे कि कहा है
जे इमे जीवा गामागर-णगर-णिगम-रायहाणी-खेड-कब्बडमडंव-दोणमुह-पट्टणासम-सण्णिवेसेसु-अकामतहाए अकामछुहाए, अकामबंभचेरवासेणं, अकामसीतासव-दस-मसग-अकामअण्हाणगसेव-जल्ल-मल-पंक-परिदाहेणं अप्पतरं वा भुज्जतरं वा कालं अप्पाणं परिकिलेस्संति, परिकिलेसित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमतेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति ।
-भग० श १। उ १॥ सू ४६ अर्थात् कतिपय मिथ्यात्वी (जो असंयत, अविरत हैं ) जो ग्राम आदि स्थानों में अकाम तृषा से, अकाम क्षुधा से, अकाम ब्रह्मचर्य से, अकाम शीत, आतप तथा डांस-मच्छरों के काटने से, दुःख को सहन करने से, अकाम स्नान, पसीना, जल्ल,
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