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[ २४१ ] साधुओं की संगति करने का मिथ्यात्वो प्रयास करे ! आत्मा के रहस्य को समझे। यद्यपि मिथ्यात्वी के निरवद्य करणी से पुण्य का बंध होता है लेकिन मिथ्यात्वी पुण्य कर्म में प्रीति न करे,' सदनुष्ठान में प्रीति करे। बशोकीर्ति नाम कर्म तथा उच्च गोत्र का बंध मिष्यात्वी निरवद्य क्रियासे कर सकते हैं । सावध क्रिया से इन दोनों का बंध नहीं होता है। आचार्य भिक्षु ने पुण्य पदार्थ की ढाल २ में कहा है।
पाले सरागपणे साधूपणो रे लाल, वले श्रावक रा वरत बार हो। बाल तपसा ने अकांम निरजरा रे लाल, यां सू पामें सुर अवतार हो ॥२६॥
-भिक्षु नप रत्नाकर खंड १ पृष्ठ १७ अर्थात् साधुके सराग चारित्र के पालन से, श्रावक के बारह प्रत रूप चारित्र के पालन से, बाल तपस्या और अकाम निर्जरा से सुर अवतार-देवभव प्राप्त होता है। सराग चारित्र का पालन, श्रावक के बारह ब्रत रूप चारित्र का पालन सम्यक्त्व के बिना नहीं हो सकता है लेकिन बाल तपस्या अर्थात् मिथ्यात्वो के तप को बालतप-बाल तपस्या कहते हैं। अकाम निर्जरा सम्यगहष्टि तथा मिथ्याष्टि-दोनों के होती है।
निरवद्य करनी कर निदान नहीं करने से, शुभपरिणाम से, पाँच इन्द्रियों के पश करने से, माया कपट से दूर रहने से, श्रुतोपासना से, धर्म कथा आदि से मिथ्यात्वी कल्याण कारी कर्मो का बंध करता है । कल्याणकारी कर्म पुण्य है। और इनको प्राप्त करने की करणी भी स्पष्टतः निरवद्य है। नव प्रकार के पुण्य का उपार्जन मिथ्यात्वी निरवध करनी से कर सकता है, सावध करणो से पुण्य का बंध नहीं होता है। आचार्य भिक्षु ने पुण्य पदार्थ की ढाल २ में कहा है
(१) समवसार ३,१५० (२) ठाणांग ठाणा १०, सू १३३ (३) ठाणांग ठाषा ६, सू २५ (४) भिक्षुनप रत्नाकर, पुण्य पदार्थ को ढाल २, गा ५४, ५५, ५६
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