________________
[ २४६ ] यद्यपि सम्यक्त्व वेदनीय-मिथ्यात्व मोहनीय की प्रकृति है परन्तु उसके पुद्गल "विशुद्ध होने के कारण क्षयोपशम सम्यक्त्व के प्रति बंधक नहीं है। उसके देशभंग रूप अतिचार सम्भव है तथा उसके उदय रहने से औपशमिक तथा साविक सम्यगदर्शन की उपलब्धि नहीं होती है । जब मिण्यावी आध्यात्मिक विकास में सम्यक्त्व मोहनीय कर्म को भी उपशांत या क्षय कर देता है तब उसे औपशमिक सम्यक्त्व या क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।
प्रायः जैन परम्परागत यह मान्यता रही है कि अनिवृत्तिकरण से पूर्व अपूर्वकरण में मथि का भेदन होता है जैसा कि कल्पभाष्य में कहा है
जा गंठी ता पठम गठिं समइच्छओ हवइ बीयं । अनियट्टीकरणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ॥
-कल्पभाष्य अर्थात् रागद्वेषात्मक ग्रंथि तक यथाप्रवृत्तिकरण जानना चाहिये । यपि के उल्लंघन करने को अपूर्वकरण कहते हैं अर्थात् अपूर्वकरण के द्वारा ग्रंथिका भेदन होने पर मिथ्यात्वी अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है। अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्वी सम्यक्त्व के सम्मुख हो जाता है अर्थात् मिथ्यात्वी शुभलेपया, शुभअध्यवसाय, शुभपरिणाम के द्वारा आध्यात्मिक विकास करता हुआ अनंतानुबंधी चतुष्क तथा तीन दर्शन मोहनौष कर्म की प्रकृतियों को अनिवृत्तिकरण में उपशांत कर औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है और शेष सत्ता में स्थित-अनुदित मिथ्यात्व को विशुद्ध परिणाम से अंतर्मुहूर्त तक उदय में नहीं आने देता है ।'
मिथ्यात्वी शुद्ध, अशुद्ध, अर्धशुद्ध-इन तीन पुज की प्रक्रिया एक नियम से करता है तथा उस प्रक्रिया के करने से वह सम्मक्खादि गुणों को कैसे प्राप्त
१-ततस्तत्रानिवृत्तिकरणे यदुदीर्णमुदयमागतं मिथ्यात्वं तस्मिन्ननु
भवेनैव क्षीणे निर्जीणे, शेषे तु सत्तावर्तिनि मिथ्यात्वे दीयमाने परिणामविशुद्धि विशेषादुपशांते विष्किभितोदयेऽन्तर्मुहूर्त मुदयमनागच्छति
-विशेषावश्यक भाष्य गा ५१. टीका ३२
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org