Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 375
________________ [ ३४८ । इति आवश्यकनियुक्तौ मिथ्याश्यां सम्यक्त्वप्राप्तिहेतुष्वकामनिर्जराया उक्तत्वात् केषाश्चिच्चरकपरिव्राजकादीनां स्वाभिलाषपूर्वक प्रह्मचर्यपालनादत्तादानपरिहारादिभिर्बह्मलोकं यावद्गच्छता सकामनिजराया अपि संभवाच्चेति ॥१७॥ -अमिधा० भाग ६ । पृ० २७५ अर्थात् सम्यग्दृष्टि के अतिरिक्त निर्जरा नहीं होती है-यह कथन सम्यग नहीं है । अकाम निर्जरा को भी बावश्यक नियुक्ति में सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण माना है। कोई-कोई चरक, परिव्राजक स्वाभिलाषा से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, अदत्तादान को छोड़ते हैं आदि कारणों से ब्रह्मदेवलोक में उत्पन्न होते हैं । उनकी यह क्रिया-सकाम निर्जरा की हेतु है। आजीविक संप्रदाय को मानने वालों की गति बारहवें देवलोक तक कही गई है। उनके शिष्यों के चार प्रकार का तप कहा है (१) उग्रतप, (२) घोरतप, (३) रसपरित्याग और (४) जिह्वा-प्रतिसलीनता ।' द्रव्यलिंगी-चारित्र को ग्रहण कर ग्रेवेयक तक जाते हैं। दयालुता, मधुर आदि गुण मिथ्यात्वी में भी मिलते हैं। कहा है "दक्खिन्नदयालुत्त, पियभासित्ताइविविहगुणनिवहं । सिवमग्गकारणं जं, तमहं अणुमोअए सव्वं ॥१॥ सेसाणं जीवाणं० ॥२॥ एमाईअणं पि अ० ॥३॥" एतदाराधनापताकागाथात्रयनुसारेण मिथ्यादृष्टीनां दाक्षिण्यदयालुत्वादिकं प्रशस्यते, न वेति ? प्रश्ने, उत्तरम् - एतदाराधनापताका. (१) ठाणं ४।४ (२) द्वादशे स्वर्गे गोसालकमतानुसारिण आजीविका मिथ्यादृशो व्रजन्ति प्रवेयके तु यतिलिंगधारिनिरंवादयो मिध्यादृष्टौ व्रजन्तीत्यौपपातिकादौ प्रोक्तमस्तीति । -सेन प्रश्नोत्तर उल्लास ३ -अमिधा. भाग ६ । पृ० २७५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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