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[ ३४६ ] और इस प्रकार की वार्ताओं के सुनने तथा ऐसे विचारों को मन में लाने से भी बचता रहे। कहा है
"ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मुत्युमुपाध्नत । इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्वराभरतः ।।
-अथर्ववेद अध्याय ३ । सू० ५ । मं० १९ अर्थात ब्रह्मचर्य रूप तप से देवताओं ने काल को भी पीत लिया है। इन्द्र निश्चय से ब्रह्मचर्य द्वारा देवताओं में श्रेष्ठ बना है।
काम्य वस्तु के उपभोग में कभी वासना की निवृत्ति नहीं होती, वरन् घृताहुति के द्वारा अग्नि के समान वह तो और भी बढ़ जाती है। कहा जाता है कि सन १८५७ ई० में गदर के समय एक मुसलमान सिपाही ने एक संन्यासी महात्मा को बुरी तरह घायल कर दिया। हिन्दु विद्रोहियों ने उस मुसलमान को पकड़ लिया और उसे स्वामीजी के पास लाकर कहा-"आप कहें तो इसकी खाल खींच ले । स्वामीजी ने इसकी ओर देखकर कहा, भाई तुम्ही वही हो, तुम्हीं वही हो-स्वमसि । और यह कहते कहते उन्होंने शरीर छोड़ दिया है।' यह भी एक प्रकार का साहस है। अहिंसा का यह एक ज्वलंत उदाहरण है।
अमृत्व प्राप्ति की इच्छा रखने वाले कोई कोई व्यक्ति विषयों से दृष्टि फेरकर अन्तरस्थ आत्मा को देखा करते हैं । २ स्वामी विवेकानन्द ने कहा है-"यदि उपयोगितावादियों के मत में सुख का अन्वेषण करना ही मनुष्य का कर्तव्य है तो जिन्हें आध्यात्मिक चिंतन में सुख मिलता है, वे क्यों न आध्यास्मिक चिंतन में सुख का अन्वेषण करे ।
लौकिक और लोकोत्तर के भेद से मिथ्यात्व के दो भेद होते हैं। हरिहर ब्रह्मादि को प्रणाम करना-लौकिक मिय्यात्व है तथा परतीर्थिक संग्रहीत जिन
१-बानयोग पृ० ३१,६२ २-कठोपनिषद् २।१८१ ३-ज्ञानयोग पृ० २८३
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