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निर्वाण प्रत्येक प्राणी का गन्तव्य स्थान है । उस तक पहुँचाने वाले का मार्ग का नाम बौद्धदर्शन में अष्टाङ्गिक मार्ग है । आठ अंग ये हैं
(१) सम्यक दृष्टि (२) सम्यक संकल्प
(३) सम्यक् वाचन
(४) सम्यक् कर्मान्त
(५) सम्यक
A
आजीविका
(६) सम्यक् व्यायाम
(७) सम्यक् स्मृति
(८) सम्यकू
समाधि
धम्मपद में कहा है
प्रज्ञा
शील
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समाधि
मग्गानटुङ्गि को सेट्ठो सच्चानं चतुरो पदा । विरागो सेट्ठो धम्मानं द्विपदानाञ्च चक्खुमा ॥ एसो व मग्गो नथजोदस्सनस्स विसुद्धिया । एहि तुम्हे पटिपज्जथ मारस्सेत्तपमोहन ॥
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- धम्मपद २० । १-२ अर्थात् निर्वाणगामी मार्गों में अष्टांगिक मार्ग श्रेष्ठ है । लोक में जितने सत्य है उन में आर्य सत्य श्रेष्ठ हैं । सब धर्मों में वैराग्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों में चक्षुष्मान ज्ञानी बुद्धश्रेष्ठ हैं । ज्ञान की विशुद्धि के लिये तथा मार को मुि करने के लिये यही मार्ग (अष्टांगिक मार्ग) आश्रयणीय है | 'लक्खणसुत्त' में बुद्ध ने निम्न जीविकाओं को गर्हणीय बतलाया है— तराजू की ठगी, कंस (बटखरे) की ठगी, मान ( नाप की ) की ठगी, रिश्वत, वंचना, कृतघ्नता, साचियोग ( कुटिलता ), छेदन, वध, बंधन, डाका-लूट-पाट की आजीविका । मिथ्यात्वी इन सब बाजीविकाओं से दूर रहे ।
मिध्यात्वी यदि पूर्णतया ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता है तो वह ब्रह्मचर्य के नाश करने वाले पदार्थों के भक्षण तथा कामोद्दीपक दृश्यों के देखने
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