Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 376
________________ [ ३४६ ] प्रकीर्णक संबंधिगाथात्रयमस्ति तन्मध्ये यति ||१|| देशविरतिश्रावका ॥२॥ ऽविरत - सम्यग्दृष्टि ॥३॥ जिनशासनसंबंधिमिर्विनाऽन्येषां दाक्षिण्यदयालुत्वादिकं प्रशस्यतयोक्तं, ततो युक्त ज्ञातं नास्ति, यत एते गुणाः श्री जिनैरानेतव्याः एव कथितास्सन्तीति । - अभिधा० भाग ६ । १० २७५ अर्थात् जिन शासन से बिना संबंधित मनुष्यों में भी नम्रता, दयालुता आदि गुण प्राप्त होते हैं । ये सब गुण जिन शासन देव के धर्म से संबंधित है | आराधना पताका में कहा है सेसाणं जीवाणं, दाणरुइत सहावविणियत्तं । तह पबणु कसायन्त, परोवगारित भव्वन्त ं ॥३१०॥ दक्खिन्नदयालुत्त पिअभासित्ताइ विविधगुण निवहं । विमग्गकारणं जं, तं सव्वं अनुमयं मडकं ॥ ३११ ॥ इअ परकयसुकमाणं, बहूणमणुमोअण्णा कथा एवं । अह नियसुचरियनियरं, सरेमि संवेगरंगेण ॥३१२ ॥ -आराधना पताका--- अर्थात् स्वभाव से भद्रता, विनीतता, अल्प कषाय, नम्रता, दयालुता, प्रिय वचन आदि विविध गुण - मोक्ष मार्ग के कारण है । प्राणीमात्र इन सब गुणों की आराधना कर सकते हैं - इन गुणों की आराधना करनी निरवद्य है । सेन प्रश्नोत्तर में कहा है चतुरशरणेsपि, अथ च मिध्यास्वीनां परपक्षिणां च दयामुखः कश्चिदपि गुणो नानुमोहनीय इति ते वदन्ति तेषां समा मति कथं कथ्यत इति । - सेनप्रश्नोत्तर उल्लास ४ अर्थात् मिध्यात्वी में प्राप्त दयादि गुणों का जो किंचित् भी अनुमोदन नहीं करते हैं उन्हें सम्यग्रइष्टि कैसे कह सकते हैं । अस्तु मित्रास्वी में दयादि गुणों का सद्भाव पाया जाता है ; वे गुण निरवद्य है। कहा है ――― Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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