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[ ३५१ ) होती है। यद्यपि वे यथाप्रवृत्ति करण के पश्चात् के करणों में प्रवेश नहीं करते है । यद्यपि मिथ्यात्वी के महान कार्य वाला सदनुष्ठान का अभाव है क्योंकि वह अभी हिताहित विवेक शून्य बाल है ।' परन्तु उनका बो भी सद्अनुष्ठान है वह फलतः निर्जरा का कारण बनता है। सिद्धान्त का नियम है कि मिध्यात्वी निर्जरा धर्म के बिना सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकते हैं । हरिभद्रसूरि ने कहा
श्रुताभावेऽपि भावेऽस्या, शुभभावप्रवृत्तितः। . फलं कर्मक्षयाख्यं स्या-त्वरबोधनिबंधनम् ॥
-बोगदृष्टि समुच्चय श्लोक ५४ अर्थात् श्रत अर्थात् सम्यग शान और सम्यग दर्शन के अभाव में भी शुभ भाव की प्रवृत्ति से कर्म क्षय होता है।
मिथ्यात्वी को चाहिए कि वह अहिंसा और तप धर्म की बाराधना आस्मशुद्धि की भावना से करे, प्रत्युत सकाम निर्जरा होगी। आचार्य भिक्षु ने कहा
सुम जोग संवर निश्चें नहीं, सुभयोग निरवद व्यापार । ते करणी छे निर्जरा सणी, तिणसूकर्म न रुकें लिगार। सुभ जोग ने संवर जू आ जूआ छे,
त्यां दोयां रा जूओं जूओं , समाव । त्यां दोयां में पक सरधे अग्यांनी, तिण निश्चें कीधों , मोटो अन्याय ।
-नव पदार्थ की चौपई अर्थात् शुभ योग निश्चय हो संवर नहीं है। शुभ योग निर्जरा की करणी है अतः उससे कर्मों का निरोध नहीं होता है। अस्तु शुभ योग और संवर अलग-अलग है। जो इन दोनों को एक श्रद्धता है वह मोटा अन्याय है। मिथ्यात्वी के संवर नहीं होता है परन्तु शुभ योगादि से निर्जरा होती है। निर्जरा की करणी निर्मल है, भगवान की बाशा के अन्तर्गत की क्रिया है । अतः
(१) योगहष्टि समुच्चय श्लोक ३० टीका ।
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