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[ २६५ ] (११) पुद्गल परिव्राजक को आलंभिका नगरी के शंखवन नामक उद्यान से योड़ी दूरी पर प्रकृति को सरलता आदि से मिथ्यात्व अवस्था में विभंग ज्ञान उत्पन्न हुआ। कहा है।
तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया णामंणयरी होत्था ।वण्णाओ। तत्थणं संखवणे नामं चेइए होत्था। वण्णओ। तस्स णं संखणस्स चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गले णामं परिवायए परिवसइ-रिउव्वेद-जजुवेद जाव गएमु सुपरिणिट्ठिए छहछ?णं अणिक्खित्तणं तबोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ (पगिजिमय-पगिन्मिय सुराभिमुहे आयावणभूमीए) आयावेमाणे विहरइ। तएणं तस्स पोग्गलस्स छ'छट्टेणं जाव आयावेमाणस्स पगइभहयाए जहा सिव्वस जाव विन्मगे णामं णाणे समुप्पण्णे।"
-भगवती० शतक ११ । उ १२ । प्र १७४, १८६, १८७ अर्थात् आलंभिका नगरी थी । वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। उस शंखवन में थोड़ी दूरी पर पुद्गल नामक परिव्राजक रहता था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि से ब्राह्मण विषयक नयों में कुशल था । वह निरंतर बेले-बेले की तपस्या करता हुआ, आतापना भूमि में दोनों हाथ ऊँचे करके आतापना लेता था। इस प्रकार तपस्या करते हुए उस पुद्गल परिव्राजक को प्रकृति की सरलतादि से विभंग ज्ञान उत्पन्न हुआ। ___ आगे जाकर पुद्गल परिव्राजक मिथ्यात्व भाव को छोड़कर भगवान महावीर के पास दीक्षित होकर सर्वकर्मों का अंत किया ।'
(१२) उवधाई सूत्र में कहा है
“से जे इमे गामागर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेडकब्बड-दोणमुहमडंव-पट्टणासम संबाह-सन्निवेसेसु मणया भवन्ति-संजहा-पगइभद्दगा पगई उवसंता पगइतणुकोहमाण-माया-लोहा मिउ-महवसंपण्णा अल्लीणा (आलीणा) विणिया, अम्मापिउसुस्सूसगा अम्मापिठणं अणतिकमणिज्जवथणा, अपिच्छा अप्पारंभा, अप्परिमगहा,
१-भग• स ११ । उ १२ । सू. १९७
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