Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 354
________________ [ ३२७ 1 नियमेण संजमेण य, अणन्नदिट्टित्तणेणं मरिऊणं । जाओ य विदेहाए, समयं भन्नेणं जीवेण ॥२४ - पउमचरियं उद्देशक उ० ३० । इलो २१ से २४ अर्थात् भामंडलजी पूर्व भव में विदर्मनगरी के राजा थे । राजा का नाम कुण्डल मंडित था । काम के वशीभूत होकर राजा ने एक ब्राह्मण की भार्या का अपहरण किया था । कालान्तर में अनरण्य राजा से पकड़े गये । छूटने पर घूमते हुए भामंडल के बीव ने एक श्रमण को देखा। मुनि ने धर्मोपदेश दिया फलस्वरूप आपने मांस भक्षण का प्रत्याख्यान किया । जिनेश्वरदेव द्वारा प्ररूपित धर्म का ऐसा महात्म्य है । पाप में रमण करने वाला -भामंडल का साधु- संगति से आत्मोद्धार हुआ। सुकृति से मनुष्य की आयु बांधी | मरण प्राप्त कर जनक राजा की धर्मपत्नी के कुक्षि से जन्म लिया 1 भामंडल नाम रखा गया । भारतीय दर्शन की बौद्धिक विचारधारा के विद्वान् स्व० डा० राधाकृष्णन ने कहा है Late Dr. S. Radhakrishnan said "In common with other system of Indian thoughts and beliefs, Jainism belives in the possibility of non-jains reaching the goal of salvation only if they follow the ethical rules laid down." In support of his statement he wrote in a magazine 'MANAV' published on the occassion of 2500 Lord Mahavirs anniversiry by 'Mahavir Parished' from HUBLI ( Madras) that Ratanshekhar Suri in the opening lines of his 'SAMBODHASATOTRI.'* has Stated as follows. "No matter he is Swetamber or Digamaber, Buddhist or a follower of any other creed, one who has realised the selfsameness of his soul i, e, looks on all creatures as his own attains Salvation." स्व० डाक्टर सर्व्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि भारतीय संस्कृति के अन्य विचार व विश्वास धारा के अनुरूप जैन धर्म भी अन्य धर्मावलम्बी के शुद्धाचरण Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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