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अन्तर्दीपज मनुष्य ( युगलिये ) नियम से मिथ्यादृष्टि ही होते हैं वे अपने पूर्व जन्म - मनुष्य या सिर्यं च पंचेन्द्रियके भव में कृत सुकर्मों का सुफल भोगते सुकृति का फलनिष्फल नहीं जाता हैं । अकर्मभूमिज मनुष्य – युगलिये जो मिध्यादृष्टि भी होते हैं और सम्यगदृष्टि भी, लेकिन सम्यग मिध्यादृष्टि नहीं होते हैं । मिध्यादृष्टि मनुष्य या तियंच ही सुकृति के कारण अकर्मभूमिज – मनुष्य में उत्पन्न होते हैं | भद्रादि महारंभ व महापरिग्रह से रहित होने के कारण वे सब देवगति में उत्पन्न होते हैं ।
मिथ्यादृष्टि शुभयोग की प्रवृति से विविध पुण्य प्रकृतियों का बंध करता है । आचार्य अमितिगति ने कहा है
सुरद्वितयमादेयं सुभंगनसुरायुषी ।
आद्ये संहतिसंस्थाने सुस्वरः सन्नभोगति । असतं विक्रियाद्वद्वमित्येता यास्त्रयोदश ।
तासां सदष्टिदुष्टी बंधोत्कृष्टत्वकारिणौ ।
- पंचसंग्रह संस्कृत ( दि० ) परिच्छेद ४ । इलो० ३५८-५ε
अर्थात् देवगति, देवगत्यानुपुर्वी -- ये दो, आदेय, सुभग, मनुष्य, देवायु, प्रथम वज्रर्षमनारचसंहनन, समचतुरस्र संस्थान, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, असातावेदनीय, वैक्रियिक द्वय क्रिय शरीर, वैक्रियिक शरीरांगोपांग ये दो - सर्व मिलकर -- ये तेरह प्रकृति होती हैं । इन तेरह के उत्कृष्ट प्रदेशबंध को मिध्यादृष्टि कर सकते हैं ।
मिथिला नगरी के राजा जनक के पुत्र भामंडल ने पूर्व जन्म में सुकृति के कारण मिथ्यात्व अवस्था में मनुष्य का आयुष्य बांधा । विमलसूरि ने कहा है
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पेच्छामि तत्थ समणं, तवलच्छिविभूसियसरीरं ॥२१॥ तरस्रमणपायमूले, धम्मं सुणिऊण भावियमणेणं । गहियं अणामिसवयं, सद्धम्मे मन्दसत्ते णं ॥ २२ ॥ जिणवरधम्मस्स इमं, माहप्पं एरिसं अहो लोए । घणपावकम्मकारी, , तह वि अहं दुग्गइ न गओ ||२३||
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