Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 363
________________ [ ३३६ ] परित्याग करे । सबसे पहले शानलाम के लिए चेष्टा करनी चाहिए। उसे सत्य, मृदु, प्रिय तथा हितकर वचन बोलने चाहिये । वह अपने उत्कर्ष की चर्चा न करे और दूसरों की निंदा करना छोड़ दे। भक्तिसूत्र में नारद जी ने कहा है - सा तु अस्मिन् परम प्रेम रूपा --नारद भक्तिसूत्र, प्रथम अनुवाद, द्वितीय सूत्र अर्थात् भगवान के प्रति उत्कृष्ट प्रेम ही भक्ति है। मिथ्यात्वी भगवान राग द्वेष रहित पुरुष का भजन करे । भक्ति कर्म से श्रेष्ठ है और योग से भी उच्च है। निष्कपट भाद से ईश्वर की खोज को भक्तियोग कहते हैं।' भगवान में विशिष्ट गुण होते हैं जिन गुणों का स्मरण भक्ति ऋषि मुनि करते है। कहा है-- अविद्यायाम् अन्तरे वर्तमानाः, स्वयं धीराः पंडितम्मन्यमानाः । जङ घन्यमानाः परियन्ति मूढा, अंधे नैव नीयमानाः यथान्धाः॥ -मूण्डकोपनिषद्, १ । २।८ अर्थात् अज्ञान से घिरे हुए, अत्यन्त निबुद्धि होने पर भी अपने को महान समझने वाले मूढ व्यक्ति, अंधे के नेतृत्व में चलने वालों अंधों के समान चारों ओर ठोकरे खाते हुए भटकते फिरते हैं । "पर्वत उपदेश देते हैं, कलकल बहने वाले झरने विद्या बिखरते जाते हैं। और सर्वत्र शुभ ही शुभ है"-ये सब बातें कवित्व की हष्टि से भले ही बड़ी सुन्दर हों पर जब तक स्वयं मनुष्य में सत्य का बीज अपरिस्फुट भाव में मो नहीं है, तब तक दुनिया की कोई भी चीज उसे सत्य का एक कण तक नहीं दे (१) भक्तियोग पृ० १ (२) श्रीमद् भागवत पुराण १।७।१० (3) And this our life Exempt from public haunt finds tongues in tree, Books in the runnig brooks, surmons in stones and goodsin evreything. --Shekespeares' As you live it' Act i, Sc. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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