Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 368
________________ [ ३४१ ] अपराजित सूरि ने कहा है दुर्गतिप्रस्थित जीवधारणात्, शुभे स्थाने वा दधाति इति धर्मशब्देनोच्यते । -भगवती आराधना १ । ४६ टीका A अर्थात दुर्गति को जाने बाले जीव को जो धारण करता है अर्थात् उसका उद्धार करता है और शुद्ध इन्द्रादि पदवी पर जो स्थापन करता हैं वह धर्म है । उस धर्म की आराधना मिथ्यात्वी देश रूप में करने के अधिकारी माने गये हैं । मिथ्यात्व - मिथ्यात्व को छोड़कर जब सम्यक्त्वी हो जाता है । असंगत सम्यगष्टि भी विशुद्ध और तीव्र लेक्ष्या का धारक होने से अल्प संसारी होता है । जिसके तीन शुभलेदया के तीव्र निर्मल परिणाम है वह सम्मग्डष्टि जीव सम्यग् दर्शन की आराधना से चतुर्गति में थोड़ा भ्रमण करके मुक्त होता हैं । अल्प संसार रहजाना यह सम्बग् दर्शनाराधना का फल है । अतः मिथ्यात्वी सद्गुरु के निकट बैठ कर वैयावृत्य करे, तत्त्वार्थ को समझे । यदि मिध्यात्वी शुभ लक्ष्यादि से सम्यक्त्व को प्राप्त करलेता है । फिर वह सम्यक्त्वमें मरण प्राप्त हो जाता है तो वह जघन्यतः एक भव करके उत्कृष्टतः संख्यातअसंख्यात भव प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करेगा ही । जधन्यरूप से सम्यक्त्वाराधना करने वाले के संख्यात या असंख्यात भव कहे गये हैं परन्तु अनन्त नहीं। अमितगति आचार्य ने कहा है मुहूर्तमपि ये लब्ध्वा जीवा मुचन्ति दर्शनम् । नानन्तानन्तसंख्याता तेषामद्धा भवस्थितिः ॥ - भगवती आराधना १| इलोक ५७ अर्थात् जो बोव सम्यग्दर्शन के मुहूर्त काल पर्यन्त भी प्राप्त करके बनंतर छोड़ देते हैं वे भी इस संसार में अनंतानंत काल पर्यन्त नहीं रहते हैं अर्थात् (१) अल्प संसारता सम्यक्त्वाराधनायाः फलत्वेन दर्शिता । Jain Education International 2010_03 - भगवती आराधना १९४८ | टीका (२) भगवती आराधना १।५१-५२। टीका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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