Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 369
________________ [ ३४२ ] उन सम्यक्त्व से पतित मिथ्यात्वियों को अद्ध पुद्गल परिवर्तन काल तक ही परिभ्रमण करना पड़ता है। इससे अधिक काल तक वे परिभ्रमण नहीं करते है। आचार्य शिवकोटी ने कहा है जस्स पुण मिच्छदिहिस्स पत्थि सीलं वदं गुणोचावि । सो मरणे अप्पाणं कह ण कुणइ दीहसंसारं ।। . .-भगवती आराधना १६१ अर्थात् जो मिथ्यादृष्टि शील व्रत और गुणों से रहित है वह मरण के अनंतर दीर्घ संसारी क्यों न होगा ? अवश्य होगा। जिनेश्वर द्वारा प्रसपित एक अक्षर पर भी जो मनुष्य श्रद्धान नहीं करता है वह कुयोनियों में चिरकाल भ्रमण करेगा' मूलाराधना के टोकाकार आचार्य अपराजित ने कहा है - वस्तुयाथात्म्यावहिचेतस्तया योगः संबंधो ध्यानयोग इति यावत् । वस्तुयाथात्म्यावबोधो निश्चलो यः स ध्यानमिष्यते । -मूलाराधना २ । ७१ । टीका अर्थात् वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने में चित को एकाग्रता होना योग अथवा ध्यान है। जब वस्तु के यथार्थ ज्ञान से निश्चितता प्राप्त होतो है तब उससे ध्यान संज्ञा प्राप्त होती है। अस्तु मिथ्यात्वी ध्यान योग का अभ्यास करे। यद्यपि समता रहित केवल तप विपुल निर्जरा का कारण नहीं होता है अतः तपश्चरण में निर्जरा हेतुता ( सकाम निर्जरा) स्वयं नहीं है किन्तु वह समता का साहाय्य पाकर होतो है ।२ स्वस्वरूप की अपेक्षा से जो वस्तु है वही पर स्वरूप की अपेक्षा से अवस्तु होती है। पूर्व कर्म की निर्जरा करने की इच्छा मिष्यात्वी को हरदम रखनी चाहिए। (१) अरोचित्वाजिनाख्यातं एकमप्यक्षरं मृतः। निन्मजतिभवाम्भोधौ स सर्वस्वारोचक न किम् । -भगवती आराधना १ । ६६ । लोक (२) न हि समता शुन्यात्तपसो विपुला निर्जरा भवति ततस्तपसो निर्जराहेतुना परवशेतिप्रधानं समता । --भगवती आराधना २७१। टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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