Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 367
________________ [ ३४० ] से वस्तु का प्रतिपादन किया जा रहा है-इस पर गहराई से सोचना चाहिये । न समझ में आये तो सद्गुरूषों से पूछना चाहिये। जिस प्रकार सारे क्लेशों का मूल अविद्या है, उसी प्रकार सारे यमों का मूल अहिंसा है। जो अपने अन्तःकरण की हिंसा के क्लिष्ट संस्कारों के मल से दूषित करता है वे घोर हिंसक हैं । ईशोपनिषद् में कहा है असूर्यानाम ते लोका अंधेन तममाऽऽवृत्ताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥ -ईशोपनिषद् मं० ३ अर्थात् जो कोई आत्मघाती लोग हैं। अर्थात् अंतकरण को मलिन करने वाले हैं; वे मरकर उन लोकों में (योनियों में ) जाते हैं जो असुरों के लोक कहलाते हैं और पने अन्धकार से ढके हुए हैं अर्थात् शान रहित असद् अनुष्ठान से नीच बोनियों में जाते हैं । मिथ्यात्वी ऐसी सत्य भाषा बोले-जिसमें प्राणियों का हित हो । सत्य बोलना अच्छा है, परन्तु सत्य भी ऐसा बोलना अच्छा है जिससे सब प्राणियों का ( वास्तविक ) हित हों, क्योंकि जिससे सब प्राणियों का अत्यन्त ( वास्तविक ) हित होता है-वह सत्य है।' अंग्रेजी में कहावत है Evory Bit of hatred that goes out of the heart of man comes back to him in full force, nothing can stop it and overy Impulse of life comes back to him, अर्थात् घृणा का प्रत्येक विचार जो मनुष्य के अन्दर से बाहर आता है वह वापस अपने पूरे बल के साथ उसी के पास था वाता है ; और ऐसा करने में उसको कोई वस्तु रोक नहीं सकती। इसी प्रकार कोई मनुष्य अनुमान नहीं कर सकता कि अज्ञानता से विचारे हुए घृणा, प्रतीकार और कामी तथा अग्ब घातक विचारों को भेजने से कितने नष्ट होगे और कितनों की हानि होगी। इसलिये विचार शक्ति के महत्व को समझो और उसको सर्वदा पवित्र और निर्मल रखने का प्रयत्न करो। (१) सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत् । यदभूतहितमत्यन्तमेतत्सत्यं मतं मम । -महाभारत, शान्तिपर्व Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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