Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 361
________________ [ ३३४ 1 जिसने दीक्षादिकाल में सम्यगदर्शनादिकों की अच्छी भावना युक्त अभ्यास किया है उस को मरण समय में बिना क्लेश के रत्नत्रयाराधना सिद्ध होगी।' विष्णुपुराण में कहा है या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी । त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु ॥ -विष्णुपुराण १-२०-१६ अर्थात अज्ञानी ( मिथ्यात्वी ) जनों को जैसी गाढ प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान पदार्थों पर रहती है, उसी प्रकार की प्रीति भगवान में हो और तेरा स्मरण करते हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न होवे । मनशुद्धि से परमात्मा का सतत और निरंतर स्मरण होता है। मिथ्यात्वी के इन्द्रिय-विषय-भोग की मात्रा जितनी कम हो, उसना ही उसका जीवन उच्चतर होता है। मिथ्यावी को इस पाठ से शिक्षा लेनी चाहिए कि वह अधिक से अधिक अहिंसक बने। योग का दूसरा नाम अध्यात्म मार्ग या आध्यात्म विद्या है। योग कल्पतरु के समान श्रेष्ठ है । उस अध्यात्म विद्या का मिथ्यात्वी अनुसरण करे। उस योग का मिथ्यात्वो अवलंबन ले। अप्रशस्त योग पाप बंध का और प्रशस्त योग पुण्य बंध का कारण है.।५ कठोपनिषद् में कहा है नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुस्खाम् । -कठोपनिषद्-१-३-३३ (१) भगवती आराधना १ । १६-आशा टीका (२) प्रेमयोग पृष्ठ १, ६ (३) योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्ध स्वयं ग्रहः ॥३७॥ -योगबिंदु (४) अध्यात्म विद्या विद्यानाम्-भगवद् गीता १० । ३२ (२) अष्टांग योग पृष्ठ ७ __Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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