Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 359
________________ [ ३३२ । अश्रद्धानं शंकाकांक्षाविचिकित्सा अन्यदृष्टि प्रशंसा संतस्व रूपं । चारित्रमोहजन्यौ रागद्वेषौ । - मूलाराधना १ । ११ - विजयोदया टीका प्रकार मोह कर्म के दो अर्थात् दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय - इस भेद हैं । उसमें दर्शन मोह के उदय से जोवादि तत्वों पर अश्रद्धान उत्पन्न होता है । इसके शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा, अभ्यदृष्टि संस्तव - ऐसे उत्तर भेद हैं । चारित्र मोह से राग-द्वेष होते हैं । यद्यपि मिथ्यात्वी के उपरोक्त दोनों का आंशिक मात्रा में क्षयोपशम रहता ही है फिर भी वह शुभ अध्यवसाय आदि से और अधिक विशुद्धि में पनपे - इसी में उसका क्रमशः आध्यात्मिक विकास है । जितनी पापयुक्त क्रियायें हैं वे सब दुःख उत्पन्न करती हैं इसका जब आत्मा को ज्ञान हो जाता है व श्रद्धान हो जाता है तब आत्मा दुःखकारी क्रियाओं से छुटने का प्रयास करता है । कर्म की गति बड़ी विचित्र है कि जो अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुए हैं, जिसका चारित्र दृढ़ है ऐसा मुनि भो परोषह के भय से यदि संक्लेश परिणाम भी होगा तो उसको दीर्घकाल तक संसार भम रहेगा । शिवकोटि आचार्य ने कहा है समदीय गुत्तीय दंसणणाणे आसादणबहुलार्ण उक्करसं यणिरदि चाराणं । अंतरं होई । - मूलाराधना १ । १६ आशा टीका - xxx आसादण बहुलाणं मरणकाले परीषहपराभवात्यमित्यादिषु पुनः संक्लेशं कुर्वता । उक्कसं अंतरं अर्द्धपुद्गलपरिवतनकालमात्र मंतरालं । मरणे रत्नत्रयाच्युताः पुनस्तावति काले अतिकति तल्लभंते इतिभावः ॥ Jain Education International 2010_03 अर्थात् एक संयमी - साधु आत्म हितकारक आचरणों में जो संक्लेश परिणाम रखते हैं तो उन्हें दीर्घ काल तक संसार भय रहेगा, मरण के समय यदि परीषहों से उद्विग्न हो जाते हैं व रत्नत्रय से च्यूत हो जाते हैं तो वे उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल तक संसार में परिभ्रमण करेंगे। मिथ्यात्वी इस पाठ से सबक ले कि वह जागरूक रहे - सद् अनुष्ठानिक क्रिवायें दत्तचित्त होकर करें। मरण के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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