Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 358
________________ [ ३३१ । बृहदारण्यक उपनिषद् में एक उल्लेख है कि अमावस्या की रात्रि में सोमा देवता की पूजा के लिए कृकलास ( गिरगिट की भी हिंसा न करे ।' अतः मिथ्यात्वी भावनाओं के द्वारा चारित्रांशका उद्योतन करता है तथा तप का भी । मिथ्यात्वी विशुद्ध लेण्या में प्रथम सम्यगदर्शन परिणाम से परिणत होता है । सदन्तर उत्तर काल में उसमें चारित्र परिणाम उत्पन्न होता है। शिवकोटि भाचार्य ने मूलाराधना में कहा है दुविहा पुणजिणवयणे भणिया आराहणा समासेण । सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवेचरित्तम्मि ॥ -मूलाराधना अ१।गा ३ अर्थात् जिनागम में संक्षेपतः आराधना के दो भेद है---यथा--(१) सम्यक्त्व आराधना और चारित्र आराधना। कहा है कि मिथ्यात्वी के शुभ परिणाम आदि से श्रद्धान और विरति परिणामों की युगपत्काल में भी उत्पत्ति होती है। जिसने माया का त्याग किया है वही तप की सम्यग् प्रकार से आराधना करने का अधिकारी है। अतः मिथ्यात्वी माया से दूर रहने को प्रचेष्टा करे । स्वाध्याय और श्रुत भावना में जो मिथ्यावी अपने चित्त को लगाता है वह चारित्रांशकी आराधना करता है। श्रुत भावना से आत्मा के ज्ञान, दर्शन, तप और संयम में परिपक्वता आती है। जो मिथ्यात्वी तप की आराधना में तत्पर रहते हैं, मोक्षाभिलाषा से तप करते हैं वे शीघ्र ही चारित्र धर्म को प्राप्त कर सकेंगे। भगवती आराधना में तप को चारित्र का परिकर कहा है। कपट का त्याग करके जो तप किया जाता है उसका फल अत्यधिक हैं। किसी प्रकार की बाधा जिसमें नहीं है ऐसा मोक्ष का सुख प्राप्त कर लेना यह आत्मा का इष्ट प्रयोजन है उसकी सिद्धि का उपाय-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-सप को भाराधना ही है। मूलाराधना के टोकाकार श्री अपराजित सूरि ने कहा है "मोहो द्विविधो दर्शनमोहश्चारित्रमोहश्च । तत्र दर्शनमोहजन्यं (१) बृहदारण्यक-एतां रात्रि 'प्राणभूतः प्राणं न विच्छिन्द्यादपि कुकलासस्यैतस्या, एवं देवताया उपचित्यै-१२०१४ (२) भगवती आराधना, आवास १ । १० - टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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