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[' ३२६ 1 निर्जरा आचार्य प्रभाचन्द्र ने भी स्वीकार की है किन्तु संवर उसके नहीं होता है।' यद्यपि दर्शन से भ्रष्ट अनगार से सम्बक्त्व सहित गृहस्थ को उत्कृष्ट बतलामा गया है। बाल तपस्वी अर्थात् आत्मस्वरूप को न जानकर अज्ञान पूर्वक कायक्लेश आदि तप करने वाला-मिथ्याष्टि जीव देवगति के आयुष्य को बांधता है।
अस्तु बाप्त-वाणी अन्यथा हो नहीं सकती। यद्यपि दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्वी अर्हन्त का अवर्णवाद बोलता है । कहा है
तत्र यदहंदवर्णवादहेतुलिंगं अहंदादिश्रद्धानविघातकं दर्शनपरीषहकारणं तन्मिध्यादर्शनं ।
-अणुओगद्दाराई सूत्तं पर हारिभद्रीय टीका पृ० ६३ अर्थात् दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्वी अहंत प्रणीत तत्त्वों के प्रति अश्रद्धान करता है तथा उनका अवर्णवाद बोलता है । क्षयोपशम भाव के भेदों में मिथ्यादृष्टि का भी उल्लेख है जिससे मिथ्यात्वी तत्त्वों के प्रति श्रद्धान करता है।
जिस प्रकार नगर में प्रविष्ट होने पर भी मार्ग भ्रष्ट मूढ मनुष्य भटकता है उसी तरह धर्म से रहित जीव भी संसार में भटकता रहता है। पूर्व जन्म में पाप करके नरकों में गये हुए नारकी लोग अग्नि की ज्वाला से व्याकुल होकर घोर दुःख का अनुभव करते हैं तथा पाप कर्म के कारण ही तियंच जाति के पीव वध, बंधन, छेद, मारण, सान सपा तिरस्कार आदि अनेक विध कष्टों का अनुभव करते हैं। करवत, यंत्र (कोल्हूँ आदि), शाल्मलि (सेमल का वृक्ष) के तलवार
(१) रत्नकरण्डक श्रावकाचार परि० १ । ३२ . टीका (२) गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ।।
-रत्नकर० परि १ । ३३ (३) कर्मविपाक-प्रथम कर्म ग्रन्थ गा० ५८ (४) जह नयरम्मि पविट्ठो, मूढो परिभमइ मग्गनासम्मि । तह धम्म विरहिओ, हिण्डह जीवो वि संसारे ॥
..-4 उमचरियं ६ । १३० (५) पउमचरियं ६ । १२७ से १२६
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