Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan
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[ ३२८ ] के नियमों का पालन करने से मुक्ति प्राप्ति में विश्वास व्यक्त करता है, अपने वक्तव्य के समर्थन में महावीर निर्वाण को २५०० वीं शताब्दी पर हुबली ( मद्रास ) से प्रकाशित 'मानव पथ पत्र में रत्नशेखर सूरिकृत संबोधाष्टोत्तरी के प्रारम्भिक पृष्ठों का उद्धरण देते हुए वे लिखते हैं "कोई बात नहीं चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बुद्ध अनुयायो हो या अन्य धर्मावलम्बी हो जिसने दूसरे की आत्मा को अपनी आत्मा तुल्य समझ लिया अर्थात् सब पीवों को अपनी आत्मा तुल्प मानता है, वह मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी है।" ___ मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेद, नपुंसक-इन दो प्रकृतियों में जघन्य अनुभाग बंध को भी करते हैं । शुभ लेश्यादि से मिथ्यात्व का विच्छेद होते ही, उसके अनंतानबंधी कषाय चतुष्क के बंध का भी विच्छेद हो जाता है। अनादि मियादृष्टि के सम्यक्त्व प्रकृति तथा सम्यग-मिथ्यात्व प्रकृति की सत्ता भी नहीं बताई गई है। ___ मिथ्यादर्शन से युक्त कषाय ही एक ऐसी विशिष्ट शक्ति को धारण करता जिससे नरकायु आदि का बंध हो सके। यहाँ पर कषाय में जो विशिष्ट शक्ति उत्पन्न होती है वह मिथ्यादर्शन के निमित्त से होती है। इसलिये नरकायु आदि कुछ प्रकृतियों का कारण कषाय को बताकर विशिष्टताधारक मिथ्यादर्शन को बताया गया है।
लोक में कतिपय मिथ्यात्वी देखे जाते हैं कि वे मद्य-मांस का आजीवन त्याग करते हैं। यह उनका प्रत्याख्यान-निरवद्यानुष्ठान । जब मिथ्यात्वी निरवद्यानुष्ठान से सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है तब उसके नारक, तियंच, नपुसक वेद वा स्त्रीवेद का बंध नहीं होता है। रत्नकरण्दक श्रावकाचार में आचार्य समंतभद्र ने कहा है
"सम्यगदर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ नपुसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुदरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यतिका ॥"
-रत्नाक० परि० १ ३५ अर्थात् मिथ्यात्व से निवृत्ति होने के बाद जब सम्यग दर्शन आ जाता है तब नारक, तिर्य च, नपुसक वेद व स्त्रीवेद का बंध नहीं होता है । मिथ्यात्वी के कर्म
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