Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 341
________________ [ ३१४ ] राजा रावण अपने अशुभ कृत्यों के कारण, मिथ्यात्व का सेवन करने से चतुर्थ नरक में उत्पन्न हुआ। योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है-- विक्रमाक्रांतविश्वोऽपि परस्त्रीषु रिम्सयां । कृत्वा .कुलक्षयं प्राप नरकं दशकन्धरः ॥६॥ -योगशास्त्र, द्वितीय प्रकाश अर्थात अपने पराक्रम से सारे विश्व को कम्पा देने वाला रावण अपनी स्त्री के होते हुए भी सीता सती को काम लुपतावश उड़ाकर ले गया और उसके प्रति सिर्फ कुदृष्टि की जिसके कारण उसके कुल का नाश हो गया। लंका नगरी खत्म हो गई। और वह मरकर नरक में गया । __समभाव को महिमा ऐसी अद्भुत है कि उसके प्रभाव से नित्य वैर रखने वाले सर्प-नकुल जैसे जीव भी परस्पर प्रेम धारण कर लेते हैं। अतः मिथ्यात्वी समताभाव को जीधन के व्यवहार में प्रश्रय दें । दृष्टि की अपेक्षा-सबसे कम सम्यग मियादृष्टि जीव होते हैं, उनसे सम्यगइष्टि जीव अनंत गुणे हैं, क्योंकि सिद्ध जीवों का समाविष्ट हैं, उनसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त गुणे अधिक होते हैं। भव्यसिद्धिक-अभव्यसिद्धिक को अपेक्षा--सबसे कम अभवसिद्धिक ( नियम से मिथ्यादृष्टि होते हैं ) जीव होते हैं, उनसे भव्यसिद्धिक जोव अनन्त गुणे अधिक होते हैं। शुक्लपाक्षिक-- कृष्णपाक्षिक की अपेक्षा-सबसे कम कृष्णपाक्षिक अभवसिद्धिक जीव होते हैं, उनसे शुक्लपाक्षिक भवसिद्धिक मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त गुणे अधिक होते हैं, उनसे कृष्णपाक्षिक भवसिद्धिक मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त गुणे अधिक होते हैं। संसार परीत्त-संसार अपरित्त की अपेक्षा-सबसे कम संसार परोत्त मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं, उनसे संसार अपरित्त मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त गुणे अधिक होते हैं । संसार परीत्त मिथ्यादृष्टि जीव-सिद्धों के अनन्त भाग में आते हैं। (१) शुक्लपाक्षिक जीव-अभवसिद्धिक नहीं होते हैं । (२) प्रज्ञापना पद ३ | ४६.-मलय टीका For Private & Personal Use Only Jain Education International 2010_03 www.jainelibrary.org

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