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[ ३१२ ] अर्थात मध्यजीवों के प्रथम बार उपशम-सम्यक्त्व का लाभ नियमतः दर्शन मोहनीय कर्म के सकलोपराम से ही होता है। किन्तु कार अर्थात् द्वितीयादि बार सर्वोपशम अथवा देशोपशम से होता है। आदिम सम्यक्त्व के लाभ के अनंतर मिथ्यात्व का संगम निश्चय से जानना चाहिये । किन्तु अन्य अर्थात् द्वितीयादि बार सम्यक्त्व लाभ के पश्चात् मिथ्यात्व का संगम भजनीय है, अर्थात किसी के होता भी है और किसी के नहीं भी होता है।
एक बार भी अब मिथ्यात्वी-मिथ्यात्व से निवृत्त होकर सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है वह निश्चय से शुक्लपाक्षिक, संसारपरीत्त, भव्यसिद्धिक जीव है । पंचसंग्रह के कर्ता ने भी प्रथम गुणस्थान में छों लेश्या स्वीकृत की है
पढमाइचउ छलेसा
-पंचसंग्रह (दि० ) अघि २ । १८७ पूर्वाध अर्थात् प्रथम गुणस्थान से लेकर चोथे गुणस्थान तक छओं लेश्याएं होती है । यह सिद्धांत का नियम है कि मिथ्यात्वी षट्ठी नरक तक का आयुष्य बांध लेने के बाद भी विशुद्ध लेश्या व सद् क्रिया के द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन श्रमणोपासक ( पंचम गुणस्थान ) व साघु नहीं हो सकते हैं । कहा है
चत्तारि वि छेत्ताई आउयबंधेण होइ सम्मत्त। अणुवय-महव्ववाई ण लहइ देवाउ मोत्तं ॥
-पंचसंग्रह (दि० ) अधि १ । २०१ अर्थात् जीव के चारों ही क्षेत्रों (गतियों) में से किसी एक क्षेत्र को आयु का बंध होने पर सम्बक्त्व को प्राप्तकर सकता है किन्तु अणुव्रत व महाव्रत देवायु को छोएकर शेषायु का बंध होने पर प्राप्त नहीं कर सकता ।
मियादृष्टि मनुष्य भावों की विशुद्धि से इसी भव में क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्तकर सकते हैं परन्तु अन्य गति वाले मियादृष्टि नहीं। जो मनुष्य जिस भव में दर्शन मोहनीय कर्म की क्षपणा का प्रस्थापन करता है, वह दर्शन मोहनीय कर्म के क्षीण होने पर नियम से उससे तीन भवों का अतिक्रमण नहीं करता।
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