Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

Previous | Next

Page 343
________________ [ ३१६ ] करम दावानल मिट सीतल थया, तिणसू निरवाण नाम छ ताम ॥ ---भिक्षुग्रन्थरत्नाकर खण्ड १ पृ० ५२ अर्थात् सर्वोत्कृष्ट पद प्राप्त कर चुकने से जीव परमपद प्राप्त, कर्म रूपी दावानल को शांत कर शीतल हो चुकने से 'निर्वाण' प्राप्त, सर्व कार्य सिद्ध कर चुकने से सिद्ध और सर्व-जन्म-जरा-व्याधि रूप उपद्रवों से रहित हो जाने से 'शिव' कहलाता है। ये सब मोक्ष के पर्यायवाची नाम है। जो अत्मा समस्त कर्मों से रहित होती है, वह कर्म रहित आत्मा ही मोक्ष है। मुक्त जीव इस संसार रूपी दुःख से अलग हो चुके हैं। वे निर्दोष और शीतलीभूत हैं। मोक्ष की प्राप्ति रूप अभिलाषा के लिये मिथ्यात्वी द्वादश प्रकार का तपस्या करता रहे। निरसंगता से, निरागता से, गतिपरिणाम से, बंधन छेद से निरीधनता से और पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव को गति ऊर्ध्व मानी गई है। कहा हैएकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा, कृत्स्नकर्म वियोगलक्षणो मोक्षः । __-तत्त्वा० १, ४ सर्वार्थसिद्धि अर्यात कर्मों के देश-क्षय से आत्मा का देश रूप उज्ज्वल होना निर्जरा है। सम्पूर्ण रूप से कर्मो के वियोजन होने को मोक्ष कहते हैं। कर्म की पूर्ण निर्जरा ( विलय ) जो है, वही मोक्ष है। कर्म का अपूर्ण विलय निर्जर। है । दोनों में मात्रा भेद हैं, स्वरूप भेद नहीं ।' निर्जरा की करणो शुभयोग रूप होने से निर्मल होती है; अतः वह निरवद्य है। आप से अन्त संसारी मिथ्यावी करोड़ों भवों के कर्मों को खपाकर सिद्ध हो जाता है। शठ, मूढ़ और दुष्टाशय मनुष्य मायाचार का सेवन करे, माया, मिथ्या, निदान-इन तीनों शल्यों की न छोड़े और मिथ्या मार्ग का उपदेश दे और समोचीन (१) जैन दर्शन के मौलिक तत्व पृ० १४७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388