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(३) विपर्यास मिथ्यादर्शन - अतत् में तत् रूप से विपरीत निर्णय करना उसको विपर्यास कहते हैं । यथा--- -सीप में चाँदी का ज्ञान कर लेना ।
विस्तार करने पर मिथ्यात्व के संख्यात तथा असंख्यात तथा व्यक्ति भेद से अनन्त भेद भी हो जाते हैं । तत्त्वार्थों का श्रद्धान करना आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप है । जब मिध्यात्वी विशुद्ध लेश्या आदि से अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया लोभ का उदय में नहीं जाने देता और मिथ्यात्व तथा सम्बग मिथ्यात्व प्रकृतियों का उदय न हो तथा उदीरणा भी न हो ऐसी दशा में होने वाली आत्मा की उत्कृष्ट शांति को प्रथम कहते हैं जो सम्यक्त्व का प्रथम लक्षण हैं ।'
किन्हीं किन्हीं मिध्यादृष्टियों के भी क्रोध आदि का तीव्र उदय नहीं देखा जाता । इस कारण उनकी आत्मा में शांति, क्षमा, उदासीनता आदि रूप गुण पाये जाते हैं। अनेक यवन, ( मौलवी ) ईसाई, ( पादरी ) त्रिदंडी आदि पुरुषों में शान्ति पायी जाती है । देश सेवक लोग भी तीव्र कषायी दिखाई नहीं देते हैं । ये गुण निरवद्य है परन्तु मिथ्यादृष्टि के अनन्तानुबंधों कषाय चतुष्क का उदय कभी नहीं होता है यह कहा नहीं जा सकता है । यद्यपि पंचाध्वायोकार ने प्रशमादि चार गुण मिध्यादृष्टि और अभव्यों में भी स्वीकार किया है। आंशिक रूप से शांति का अनुभव कतिपय मिध्यादृष्टि भी करते हैं - इसमें कोई संदेह नहीं है । जीव तत्व में अज्ञान होना हो मिथ्यात्व का एक विशेष स्वरूप है । पाँच प्रकार के मिथ्यात्व में से अज्ञान नाम का मिथ्यात्व भी अधिक बलवान् है ।
व्यक्तिगत रूप से मिथ्यादर्शन अनादि काल का नहीं है, किन्तु उस उस मिथ्यात्व कर्म अनादि काल से प्रवाहित होकर चला आ रहा है । अतः मिथ्यादर्शन को अनादिपना कहना ठीक नहीं है । वह मिथ्यादर्शन धाराप्रवाह रूप से अनादि कारण वाला है, स्वयं अनादि नहीं है चूँकि संतान ( धाराप्रवाह ) की अपेक्षा से मिथ्यात्व कर्म को अनादिपन है । पर्याय की अपेक्षा से मिथ्यात्व कर्मों
रागादिनां
मिथ्यात्वसम्यगमिध्यात्वयो
(१) तत्रानन्तानुबंधिनां श्चानुद्रकः प्रशमः ।
-उत्रवार्यश्लो० ० अ१ । स १ श्लोक १२ पर टीका | खंड २ पृ० ३०
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