Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 350
________________ [ ३२३ ] को और कर्मों से अमित भावों को सादि कहा है। जैसे भारतवर्ष में अनादि से अनंतकाल तक मनुष्य पाये आते हैं, यह कथन संतान, प्रति संतान की अपेक्षा से है, किन्तुएक विवक्षित मनुष्य तो कुछ वर्षों से अधिक जीवित नहीं रह सकता । वैसे ही एक बार का उपार्जित किया हुआ मिथ्यात्व द्रव्य अधिक से अधिक सत्तर कोटा. कोटी सागर तक स्थित रहता है', फिर भी इन कर्मों का प्रवाह अनादिकाल से चला आया है। भावों की विशुद्धि की ओर मिथ्यात्वी ध्यान दें । मरुदेवी माता का सबक उत्तम है । आचार्य शीलांक ने कहा है - "मरुदेवासामिणी x x x संसारे संसरंताणं कम्मवसगाणं जीवाणं सव्वोसव्वस्स पिया माया बंधू सयणो सत्त दुज्जणो मज्मत्थो" त्ति । एयं च चितयंतीए उत्तरुत्तरसुहऽऽझवसायारूढसम्मत्ताइगुणट्ठाणाए सहस त्ति पावियाऽव्यकरणाए पत्ता खवगसेढी, खवियं मोहजालं, पणासियाणि णाण-दसणावरण-उतरावाणि, समासाइयं केवलणाणं । तयाणंतरमेवसेलेसीविहाणेणं खविय कम्मसेसा गयखंधारूढा चेव आउयपरिक्खए अंतगडकेलित्तणे सिद्धा 'इमिए ओसप्पिणीए पढमसिद्धो"। -चउत्पन्नमहापुरिसचरियं पृ० ४२ अर्थात् गजपर आरुढ मरुदेवी माता ने संसार अनित्य है, कर्म के वशी भूत प्राणी संसार में परिभ्रमण करते हैं, ऐसी भावना का चिंतन किया । भावों की उत्कृष्ट विशुद्धि से मिध्याव छुटा---सम्यक्त्व प्राप्त किया-चारित्र आया । क्षपकश्रेणो पर आरूढ होकर धनधातिक कर्मों का क्षय कर डाला। फलस्वरूप केवल ज्ञान-केवल दर्शन उत्पन्न हुआ। शैलेशी अवस्था प्राप्त कर चार अघातिक कर्मो का क्षय कर निर्वाण पद प्राप्त किया । यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित है कि मिथ्यात्वी या सम्यक्त्वी के आदि बास्रव द्वारों के कारण आत्मप्रदेशों में हलचल होती है तथा जिस क्षेत्रों में प्रदेश हैं उसी क्षेत्र में रहे हुए अनंतानंत कर्म योग्य पुद्गल जोद के साथ बंध को (१) मिच्छत्तवेयणिज्जत्त xxx उक्कोसेणं सत्तरिकोडाकोडीओ। -पण्णवणासुत्त पद २३ । सू १७.. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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