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[ ३२१ ] जीव को सम्यग दर्शन को उपलब्धि होती है। जैसा कि बाचार्य विद्यानन्द ने कहा है
दर्शन मोहरहितस्य पुरुषस्वरूपस्य वा तत्त्वार्थश्रद्धानशब्देनाभिधानात् सरागवीतरागसम्यग्दर्शनयोस्तस्य सभावाव्याप्तेः स्फुर्ट विध्वंसनात् ।
-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार अ १ सू २ टीका । द्वितीय खंडपृ. १६ अर्थात् दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से रहित हो रहे आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप का तत्त्वार्थों का श्रद्धान करना-इस शब्द से कहा गया है । यह निर्वोष लक्षण सभी सम्यगदर्शनों में घटित हो जाता है।
मोह, संशय, विपर्यास-इन तोनों मिण्यादर्शनों के बवच्छेद से उन सत्त्वार्थों में दर्शन हुआ है वही सम्यगदर्शन है। मान में भी सम्यग् शब्द लगाने से संशय, विपर्यय और अज्ञान का व्यवच्छेद करना कहा गया है।'
अस्तु तत्त्वार्थ में किसी-किसी जीव के तीन प्रकार के मिन्यादर्शन हो सकते हैं, यथा
(१) अविवेक मिथ्यादर्शन-यह जीव का मोहनीय कर्म के उदय होने पर मोहरूप भाव है। अव्युत्पन्न जीव को हित-अहित नहीं सूझता है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि तत्त्वों के निर्णीत विश्वास करने का नाश हो जाना।
(२) संशय मिथ्यादर्शन-एक विषय में दृष्टि शान न होने पर चलायमान कई अवान्तर ज्ञप्तियों के होने को संशय कहते हैं, जैसे कि यह जीव है ? या अजीव अथवा ठूठ या पुरुष ? इत्यादि प्रकार से धर्मों में संशय करके किसी भी एक कोटि में अवस्थित ( दृढ ) हो न रहना अथवा क्या जीव नित्य है ? अथवा अनिस्य है ? और इस ढंग से व्यापक है या अव्यापक ? इस प्रकार संशय करते हुए किसी भी एक धर्म में निश्चित रूप से अवस्थित न होना संशय है।
(१) मोहारेकाविपर्यासविच्छेदात्तत्र दर्शनम् । सम्यगित्वभिधानात्त ज्ञानमप्येवमीदितम् ।
तत्त्वार्थ श्लो० अ २ । सू २। टीका-श्लोक ६ खंड २
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