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[ ३१८ । स्थिति का बंध मिथ्यात्वी संक्लेश परिणाम से बांधते है। अतः मिथ्यात्वी इस मर्म को समझे, अशुभलेश्या को छोड़े, शुभलेश्या में चित्त को लगावें-इसी में उसका कल्याण है।
निगोद के जीवों की सबसे छोटी आयु होती है उसका बन्ध दुष्ट स्वभाव वाला मिध्यादृष्टि कुभोगभुमिज करता है । कहा है - सप्तानां जीवितव्यस्य मिथ्यादृष्टिः कुमानुषः ।
-पंचसंग्रह (दि. ) परि ४ । २०४ उत्तरा, अर्थात् जो वितव्य-आयु की जघन्य स्थिति को दुष्ट स्वभाव वाला मिथ्यादृष्टि कुमानुष बांधता है। कहीं-कहीं तियं च का आयुष्य भी शुभ-पुण्य प्रकृति के अन्तर्गत माना गया है । आचार्य अमितगति ने कहा है
तिर्यक नरसुरायुषि संति सन्त्यष्टकर्मसु ॥२३६।।
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तिर्यङ मामराय षि तत्प्रायोग्यविशुद्धितः ।।२४०।।
-पंचसंग्रह (दि ) परिछेद ४ अर्थात् तियच आयु, मनुष्यायु, देवायु - ये शुभ अथवा पुण्य प्रकृति मानी जाती है। अत: ये तीन प्रकृति, कषाय को तद्योग्य विशुद्धि से बंधन को प्राप्त होती है । यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित है कि तियंचादि तीन आयुओं की उल्टी रीति है । अर्थात संक्लेश वृद्धि से तीन आयु की स्थिति जघन्य होती है और विशुद्धि से उत्कृष्ट होती है। मिथ्यात्वी के साप्ता वेदनीय कर्म के बंध में परिणामों की योग्य विशुद्धि परिणति कारण है। मिथ्यात्वी ----शुभप्रकृति रूप मनुष्य गति के तीव्र अनुभाग का बंध-शुभलेश्यादि से करते हैं। जब मिष्यादृष्टि संयम के
(१) उत्कृष्टा स्थितिरुत्कर्षे संक्लेशस्य जघन्यका। विशुद्ध न्यथा ज्ञ या तिर्यङ नरसुरायुषाम् ।।२४२॥
-पंचसंग्रह (दि०) परिछेद ४ (२) पंचसंग्रह ( दि०) परिच्छेद ४ । २४३ पूर्वार्ध । ३) पंचसंग्रह ( दि० ) पदिच्छेद ४ । २७६ !
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