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लक्ष्मीवल्लभ टीका - x x x ततो मुनेर्वाक्यश्रवणात् सर्वपरिकर-युक्तो धर्मानुरक्तोऽभूदित्यर्थः ।
अर्थात् इसप्रकार राजाओं में सिंह के समान पराक्रमी वह राजा श्रेणिक कर्म रूपी शत्रओं को नाश करने में सिंह के समान उन बनायो मुनि की उत्कृष्ट भक्ति पूर्वक, स्तुति करके, अपने अंतपुर सहित मिथ्यात्व रहित धर्म में अनुरक्त बन गया । प्रथम नरक से निकल कर श्रेणिक राजा का जीव भी आगामी उत्सर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में पद्म नाम तीर्थंकर होगा ।"
निर्मल चित्त से
-त्रिषष्टि श्लाघा पुरुष चरित्र में कहा है कि बब भगवान् महावीर राजगृह नगर में पधारे तब राजा परिवार सहित भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया । भगवान् ने परीषद को धर्म देशना दी। भगवान् की वाणी से प्रभावित होकर राजा श्रेणिक ने मिथ्यात्व को छोड़ा, सम्यक्स्व को ग्रहण किया ।
कहा है
इत्यभिष्टुत्य विरते
परमेश्वरः ।
पीयूषवृष्टिदेशीयां
विदधे
धर्मदेशनाम् ।
श्रुत्वा तां देशनां भर्तुः सस्यक्त्वं श्रेणिकोऽश्रयत् ।
श्रेणिके
- त्रिश्लाघा० पर्व १० । सर्ग ६ | इलो ३७५, ३७६ । पूष
अर्थात् र भगवान् की अमृतमय देशना को सुनकर श्रेणिक राजा ने सम्यक्त्व का आश्रय लिया ।
अस्तु कृष्ण वासुदेव तथा राजा श्रेणिक यदि प्रथम गुणस्थान में कुछ भी सदनुष्ठान नहीं करते तो वे कैसे मिथ्यात्व से निवृत्त होकर सम्यक्त्व - क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करते । जबकि मिध्यात्वी अनंतानुबंधी चतुष्क को सद्नुष्ठान क्रिया से क्षय कर देता है- - सब मिथ्यात्व की विशुद्ध करके क्षायिक सम्यक्त्व का आराधक होता है । क्षायिक सम्यक्त्व के कोई कोई आराधक जीव उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं, बुद्ध हो जाते हैं, कर्मों से मुक्त हो जाते हैं, परमशांति को प्राप्त हो जाते हैं, जो उसी भव में मोक्ष नहीं पाते हैं वे सम्यक्त्व की उपच विशुद्धि के कारण तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते अर्थात् तीसरे भव में
(२) समवायांग सू २५१-२५२
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