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[ २७४ ] वासाई परियायं पासणति पाउणित्ता, कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं जोइसिएसु देवेसु उपवत्तारो भवंति | xxx पलिओवमं वाससया सहस्यमन्महिलं ठिई पण्णत्ता xxx! आराहगा ? णो इण? सम? ।
ओवाइयं प्र० ३८ अर्थात हस्तितापसों का उपपात उत्कृष्ट रूप से ज्योतिषी देवों में किसी देव रूप में होता है वहाँ उनकी स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है । वे देव सम्पूर्ण आराधना की दृष्टि से परलोक के आराधक नहीं हैं। .
यहाँ जो यह कहा गया है कि हस्तितापस देव रूप में उत्पन्न होता है, एक तो हाथी पंचेन्द्रिय होता है, फिर उसको मार कर मांस खाना । ये दोनों कार्य (पंचेन्द्रिय जीव की हत्या तथा मांस का आहार ) नरकगति के बंधन के कारण है। अतः इन कारणों से जीव नरफगति में उत्पन्न होता है, परन्तु हस्तितापस अग्यान्य सदअनुष्ठानिक क्रिया-करता रहता है जिसके कारण वह देव रूप में उत्पन्न होता है। आगम में कहा है
एवं खलु चउहि ठाणेहिं जीवा देवत्ताए कम्मं पकरेंति देवत्ताए कम्मं पकरेत्ता देवेसु उववज्जंति, संजहा-सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, अकामनिज्जराए, बालतवोकम्मेणं ।
-ओवाइयं सू ७३ अर्थात चार स्थान देवगति के बंधन के कारण हैं-यथा-सरागसंयम, संयमासंयम, बालतप तथा अकामनिर्जरा । अस्तु हस्तितापस अपने कृत बालतप ज्या अकामनिर्जरा के द्वारा देवरूप में उत्पन्न होता है।
' (१९) श्रमणोपासक वरुण-नागनत्तुया का प्रिय बालमित्र ने (प्रथम गुणस्थान में) प्रकृति भद्रादि परिणाम से मनुष्य की आयु बौधी । कहा है
वरुणस्स णं भंते ! णागणत्त यस्स पियबालवयंमए कालमासे काल किच्चा कहिं गए, कहिं उववण्णे ? गोषमा! सकुले पच्चायाए ?
(१) एवं खलु चउहि ठाणेहिं जीवा गैरइत्ताए कम्मं पकरेंति । णेरइताए कम्मं पकरेत्ता रइसु उववज्जंति, संजहा-महारंभयाए, महापरिगयाए, पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं । -ओवाइयं सू ७३
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