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[ २१२ ] हेतु कर्म प्रकृति पुण्य है। पुण्य और पाप दोनों से मुक्त होना ही मोक्ष है।' मियात्वी सद् अनुष्ठान में प्रवृत्ति करे--अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होने का प्रयास करे। शुद्धसंपत्ति को सुपात्र देना-यह मिथ्यात्वी के लिए भी संसार से पार होने का मार्ग है । आचार्य हरिभद्रसूरि ने भिवाष्टक में कहा है- 'जो यति थानादि से युक्त, गुरु आशा में तत्पर और सदा अनारंभी होता है और शुभ आशय से भ्रमर की तरह भिक्षाटन करता है वो उसकी भिक्षा 'सर्वसंपतकरी' है।
मिण्या दृष्टि असंक्लिष्ट लेक्याओं ( कृष्ण-नील-कापोत लेपया ) में मरण प्राप्त होकर कभी भी वैमानिक देवों में उत्पन्न नहीं हुआ है, न होगा किन्तु असं क्लिष्ट लेश्याओं में ( तेजो-पद्मशुक्ल लेश्या ) मरण प्राप्त होकर वैमानिक देवों में उत्पन्न हो सकता है। . भावपरावर्त की अपेक्षा मियादृष्टि नारकी, संज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रय, संशी मनुष्य तथा देवों में कृष्णादि छओं लेपयायें होती है। मिथ्माहष्टि संशो तियंच पंचेन्द्रिय भी सदावरणीय कर्म के क्षयोपशम से, शुभ लेण्या से विभंग शान उत्पन्न कर सकते हैं। उनमें से कतिपय जीव सम्बस्व को प्राप्त कर श्रावक के पत्तों को भी धारण कर सकते हैं। कहा है
"मिथ्यात्वी अनेक मला गुणा सहित ते सुव्रती कह्यो xxx ते क्षमादिक गुणारी करणी अशुद्ध होवे वो कुप्रती कहता।"
-भ्रमविध्वंसनम् अधि १६५ उत्तराध्ययन की अवचूरी में कहा है कि मिथ्यात्वी की मास क्षमण की तपस्या-चारित्र धर्म--सर्व सावध के त्याग प धर्म की सोलहवीं कला भी (१) सुहहेक कम्मपगई पुग्नं ।
-देवेन्द्रसूरिकृत श्री नवतत्व प्रकरणम् (नवतत्त्व साहित्य संग्रह) गा ३८. (२) परमात्म प्रकाश १,२१ (३) अष्टकप्रकरण, भिक्षाष्टक (४) उत्त० २. (५) भ्रमविध्वंसनम् पृ० १२
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