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[ २६६ ] अकाम कर्म निर्जरा करता हो, बालतप अर्थात् सम्यक्त्व रहित कायरलेशादि तप करे, शील पाले अथवा सम्यक्त्व सहित हो, महावत धारण करे, परिणामों को शांत रखें --वह मिथ्मादृष्टि या सम्यक्त्वी देवायु का बंध करता है।
अस्तु अकाम निर्जरा और बालसप-ये दोनों मिथ्यात्वी के भी होता है जो देवगति के बंध का कारण है। शील रखना-ये भी मिथ्यात्वी कर सकते हैं। शीलरहित-व्रत रहित मिथ्यावी भी भद्र प्रकृति-विनीतता-अल्पारंभ, अल्प परिग्रह भी मनुष्यगति के बंधने के कारण बनते है ।
उपयुक्त सभी सद् अनुष्ठान है-उससे मिध्यात्वी मनुष्यगति अथवा देवगति में उत्पन्न होता है।
मिथ्यात्वो जब अपूर्व कारण से शुद्ध-अशुद्ध मिश्र-तीन पुषों को नहीं करता है तथा मिष्यास का क्षय नहीं करता है तब मिथ्यात्वी मोहनीय कर्म को सात प्रकृतियों को उपशम कर उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है । जैसा कि विशेषावश्यक भाष्य में कहा हैजो वा अकयतिपुञ्जो अखवियमिच्छो लहइ सम्म।
--विशेभा० गाथा ५२६ । उत्तरार्व टीका-यो वा जन्तुरनादिमिथ्याष्टिः सन्नकृतत्रिपुञ्जो मिथ्यात्वमोहनीयस्थाऽविहित - शुद्वाऽशुदमिश्रजत्रयविभागोऽश्नपितमिथ्यात्वो लभते सम्यक्त्व, तस्याप्यन्नरकरणप्रविष्टस्यौपश मिकं सम्यक्त्वमवाप्यते। क्षपित मिथ्यात्वपुजोऽप्य विद्यपानत्रिपुंजो भवति, अतस्तद व्यच्छेदार्थमुक्तम-अक्षपितमिथ्यात्वः सन् योऽत्रिपुजः सम्यक्त्वं लभते, तस्यैवोपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्यते, क्षपितमिथ्यात्वः क्षायिकसम्यक्त्वमेव लभत इति भावः । ___ अर्थात् अनादि मिथ्यादृष्टि जोव शुद्धपुञ्ज, अर्द्ध शुद्धपुञ्ज और अशुद्धपुज को किये बिना तथा मिथ्यात्व को भय किये बिना-अंतरकरण में प्रवेश करते हुए ओपमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है।
१-साप्त कर्म प्रकृति --मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्व मोहनीय तथा अनंतानु
बंधोय कषाय चतुष्क ( क्रोध-मान-माया-लोभ )
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