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[ ३०३ ] मिथ्यादर्शन के कारण मोही होता हुआ जोष सुख नहीं प्राप्त कर सकता, बल्कि दुःख की प्राप्ति करता है ।' पद्मनंदि ने कहा है -
जिसमें अरिहंत देव, सुसाधु-गुरु और तत्व-धर्म को यथार्थ श्रद्धा है, उस सम्यक्त्व को मैं यावज्जीवन के लिए स्वीकार करता है। यह दर्शन-पुरुष के व्यावहारिक सम्यगदर्शन के स्वीकार की विधि है। इससे उसके सत्य संकल्प का ही स्थिरीकरण है।
रत्नत्रयी शान, दर्शन ( श्रद्धा या रुचि ) और चरित्र की है । इस त्रयात्मक श्रेयोमार्ग ( मोक्ष मार्ग ) की आराधना करने वाला ही सर्वाराधक या मोमगामी है । श्रेयस्-साधना की समग्रता अयथार्थ ज्ञान, दर्शन, चरित्र से नहीं होती। इसलिए उसके पीछे सम्यग शब्द और जोड़ा गया । सम्बग् ज्ञान, सम्यग दर्शन
और सम्यग चरित्र-मोक्षमार्ग हैं।४ एक दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का त्रिवेणी संगम प्राणी मात्र में होता है क्योंकि ज्ञानावरणीय आदि चार घातिक कर्मों का क्षयोपशम प्राणीमात्र में होता है।
आश्रय भव-संसार का हेतु है तथा संवर-निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं। कहा है
"आस्रवो भवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमाहती दृष्टिरन्यदस्याः प्रपंचनम् ।
-वीतराग स्तोत्र
(१) मिच्छादसणमोहियउ ण वि सुह दुक्ख वि पत्तु
-योगसार टोका गा ४ उतराद्ध (२) चत्तारि मंगलं xxx केवली पण्णत्त धम्म सरणं पवज्जामि ।
-आवस्सयं सुत्त अध्ययन ४ (३) अरिहंतो महदेवो। जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्त तत्त, इय समत्त मए गहियं ॥
-आवस्सयं सुत्तब ४ (४) तिविहे सम्मे पण्णत्ते, संजहा.--णाणसम्मे, दसणसम्मे, चरित्रसम्मे।
-~-ठाणं स्था० ३।४।११४
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