________________
[ ३०५ ] अर्थात निर्जरा आत्म-शुद्धि सुख है । पापकर्म दुःख है। जब मिथ्यात्वी के सद् आचरण से निर्जरा होती है--ऐसे निर्जरा होने से अब केवली भगवान् के वचनों पर श्रद्धा हो जाती है तब वह सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। सम्यक्स्व की प्राप्ति होते ही मिध्याव से निवृत्ति हो जाती है।'
आत्मा की अविकसित दशा में उस पर कषाय का लेप रहता है। इससे उसमें स्व-पर की मिथ्या कल्पना बनती है। स्व में पर को दृष्टि और पर मैं स्वदृष्टि का नाम मिध्यादृष्टि है। मिथ्यात्वी सद्पराक्रम से कषाय से दूर रहने की चेष्टा रखें । कर्म की गति बड़ी विचित्र है। संसार रूपी चक्रव्यूह से निकलने का प्रयास करे । सद् प्रयास से अवश्य सफलता मिलेगी। ___ सद् पुरुष को श्रद्धा, प्रतीति, भक्ति, आश्रय, निश्चय -ये सम्यक्त्व के कारण होने से-उस भक्ति को सम्यक्त्वरूप कहा है--
अरहते सुहमत्ती सम्मत्त देखणेण सुविसुत्त। सीलं विषयविरागो णाणं पुण केरिसं भणियं ॥
- -अष्टप्रा०८ । ४० अर्थात् परम कपाल श्रीमद अरिहंत परमेस्मा की उत्तम भक्ति-सम्यक्त्व है। वह व्यवहार से है । वहीं निश्चय में सत्त्वार्थ की श्रद्धा तथा आत्मा के अनुभव रूप सम्यगदर्शन से निर्मल शुद्ध होता है-ऐसी शुद्ध अरिहंत भक्ति रूप सम्यक्त्व है। विषयों से विरक्त होना शील है। अतः मिथ्यात्वी के सही श्रद्धा, सही प्रतीति होने से आत्म-लाभ होता है। सद् पुरुषों के प्रति उसके वचन के प्रति अपूर्व प्रेम, भाव सहित श्रद्धा, प्रतीति अवश्यमेव आत्मार्थियों को दृढ करनी चाहिए।
ज्ञान के अष्ट भेदों का जहाँ उल्लेख है वहां प्रथम के पाँच ज्ञान सम्यगृहष्टि के होते हैं तथा अवशेष तीन अज्ञान मिथ्याहष्टि के होते है। भास्करनंदि ने कहा है
(१) अं सक्का तं कीरइ णं च पा सक्केइ तं च सहहणं। केवलिजिणेहि भशियं मदहमाणस्म सम्मत्त ॥२२॥
-अष्टपाह-दर्शनपाई ३६
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org