Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 328
________________ [ ३०१ ] श्री मज्जाचार्य ने कहा है- । पहिले तीज मिथ्यात निरंतरै। -झोणी पर्चा गा २२ पूर्वार्ष अर्थात् पहले और तीसरे गुणस्थान में निरंतर मिथ्यात्व आश्रव होता है। मित्यात्यो के भी पुण्य और पाप-दोनों का बास्रव होता है। जिस प्रकार घट का अनुरूप कारण मिट्टी के परमाणु है और पट का अनुरुप कारण तन्तु है, उसी प्रकार सुख के अनुरुप कारण पुण्य कर्म और दुःख के अनुरूप कारण पाप कर्म का पार्थक्य मानना पड़ेगा। उस पुण्यका उपार्जन-अकाम निर्जरा से भी मिथ्यात्वी के होता है। कहा है "अकामेन-निर्जरां प्रत्यनमिलाषेण निर्जरा-कर्मनिर्जरणहेत. बभुक्षादिसहनं यत् सा अकाम निर्जरा तया।" ठाणं ठाणा ४ । उ ४ । सू० ६३१ टीका अर्थात् मोक्षाभिलाषा के बिना बुभुक्षा आदि को सहन करना अकाम निर्जरा है - कर्म की निर्जरा इससे भी होती है । मिध्याहृष्टि के शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के अध्यवसाय होते हैं। दोनों के असंख्यात-असंख्यात प्रकार हैं। नारकी जीवों में भी असंख्यात अध्यवसाय कहे गये हैं लेण्या और अध्यवसाय का घनिष्ट सम्बन्ध मालूम देता है। क्योंकि मिथ्यात्वी के जातिस्मरण, विभंग ज्ञान की प्राप्ति के समय में अध्यवसायों के शुभतर होने के साथ लेश्या परिणाम भी विशुद्धतर होते हैं। इसी प्रकार अध्ययसाय के अशुगतर होने के साथ लेश्या को अपिशुद्धि घटित होती है। ऐसा मालूम देता है कि मिथ्यात्वी के भी छहों लेश्याओं में प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवयाय होते हैं। (१) गणधरवाद पृष्ठ १३६ से १३६ (२) लेश्या कोश पृष्ठ २७७ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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