Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 327
________________ [ ३०० ] मिष्णाली शुद्धावि तीन पुत्र को प्रक्रिया एक नियम से करता है तथा उन प्रक्रिमा के करने से सदनुष्ठान में सम्ममत्वादि गुणों को प्राप्त कर लेता है। वे अध्यात्म विकास -करते हुए श्रुतादि सामायिक का लाभ ले सकते है परन्तु अभव्यात्मा केवल यथाप्रवृत्तिकरण को ही प्राप्त कर रह जाता है अर्थात् वह अभव्यात्मा शेष के दो करण (अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण ) को नहीं प्राप्त कर सकता है परन्तु यथाप्रवृत्तिकरण में प्रविष्ट बीष श्रुतसामायिक का लाभ ले सकता है। प्रायः तप-संयम से भावितात्मा वाले अनगारों को ही अवधि जानादि उपलब्धियाँ उत्पन्न होती हैं। आगम में सम्यगदृष्टि अनगार तथा मिथ्यादृष्टि अनगार-दोनों के लिए भावितात्माका प्रयोग हुआ है।' ___अमायो सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार भी अपनी वीर्यलधि से, क्रियसन्धि से और अवधि ज्ञान लब्धि से एक बड़े नगर की विकुवंणा कर सकता है। परन्तु उसका दर्शन अधिपरीत ( सम्यग) होता है वह तषाभाष से जानता है, देखता है। घर-बार आदि का त्यागी होने के कारण अन्धमतालम्बी साधु को अनगार तथा उसके ( अन्यमत ) शास्त्र में कथित तम, दम आदि नियमों को धारण करने वाला होने से भावितात्मा कहा गया है। वह मायी अर्थात् क्रोधादि कषाय वाला है और मिथ्यादृष्टि है। जैसे दिगमूढ मनुष्य पूर्व दिशा को पश्चिम दिशा मानता है उसी प्रकार उसके सम्यग् ज्ञान न होने के कारण उस अनगार का अनुभव विपरीत है। कतिपय भावितात्मा अणगार विभंग जानी वैक्रिय कृत रूपों को भी स्वाभाविक रूप मानता है अतः उसका पह दर्शन भी विपरीत है। जितने अंशों में उसका सही ज्ञान, सही वर्शन है तो उसका उतने अंशों में सम्यगमान, सम्बग्दर्शन कहा जायेगा। अर्थात वह सम्यगजान तथा सम्बगदान को बानगी ( नमूने ) हैं। (१) भगवई । ३ । उ ६ । सू २२२।२२३ (२) भगवई ३ । उ ६ । सू २३४।२३५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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