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[ २६८ ] अर्थात् तेजो, पद्मलेल्या में आदि के सात गुणस्थान हैं और शुक्ललेषा में अन्त का एक छोड़कर तेरह गुणस्थान है। अत: मिथ्यात्वी में तेजो--पद्म शुक्ल-तीनों प्रशस्त लेश्याएं होती हैं । प्रशस्त लेश्याओं से कर्मों का गाढतम बध नहीं हो सकता। अतः मिथ्यात्वी के इन लेश्याओं से कर्म कटते हैं । यद्यपि मिथ्याहष्टि गुणस्थान में मिथ्यात्व आदि चारों ही बंध के कारण होते हैं।' आचार्य अमितगति का भी यह मंतव्य रहा है कि जीव जब सम्यक्त्व से गिर कर नीचे प्रथमस्थान में आता है उस समय अनंतानुबंधी का आवली प्रमाण काल पर्यंत उदय नहीं होता अतः अनंतानुबंधी का उदय यहाँ आश्रय कारण नहीं होता ।
मिथ्यादृष्टि हो और प्रत रहित तथा शोल रहित हों, वह यदि महा आरंभ महा परिग्रह करे तो वह अपने परिणाम को दूषित करता है और उससे वह नरकायु का बंध करता है। कहा है
निःशीलो निर्वतो भद्रः प्रकृत्याल्पकषायकः । आयुर्बध्नाति मानामल्पारंमपरिग्रहः ।। अकामनिर्जरावालतपःशीलमहाप्रती । सम्यक्त्वभूषितो देवमायुरर्जति शांतधी।
-पंचसंग्रह-संस्कृत (दि०) परि०४ । श्लोक ७६८० अर्थात् शील रहित, प्रत रहित परन्तु भद्रपरिणामी, स्वभाव से ही कषायों को अधिक प्रज्वलिम न करता हो, आरंभ, परिग्रह कम रखे -वह मिथ्यात्वी मनुष्य के आयुष्य को बांधता है।
(१) मिथ्यात्वाविरती योगः कषायः कथितो जिनः । ___ चत्वारः प्रत्यया मूले कर्मबंधविधायिनः ॥
पंचसंग्रह-संस्कृत (दि. ) परिच्छेद ४ । पृष्ठ १९५ (२) पंच संग्रह-संस्कृत ( दि० ) परिच्छेद ४ । पृ० २०८-२०६ (३) मियादृष्टिवतापेतोब्रह्वारंभपरिग्रहः । आयुर्वघ्नाघ्राति निःशीलो नारकं दुष्टमानसं ।
__----पंचसंग्रह सस्कृत ४ । २४४
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