Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 320
________________ [ २६३ ] नहीं आती है। यह संवर धर्म की अपेक्षा से कहा है परन्तु निर्जराधर्म की अपेक्षा नहीं। यदि मिथ्यात्वी शीलादिक को ग्रहण करता है तो निर्जरा की अपेक्षा उसके प्रत्याख्यान-सुप्रत्यास्थान है। कहा है "मिथ्यात्वी शीलादिक आदरे, ते पिण निर्जरा रे लेखे निर्मल पच्चक्खाण छै।" जीवन अस्थिर है धर्म स्थिर है। अतः मिथ्यात्वी सक्रिया से सम्यक्त्व को प्राप्त कर धर्म का अनुकरण करे । दीर्घ आयुष्य, उत्तमरूप, आरोग्य, प्रशंसनीयता आदि सब अहिंसा के ही सुफल है । अधिक क्या कहें ? अहिंसा कामधेनु को सरह समस्त मनोवांछित फल देती है अहिंसा माता की तरह समस्त प्रापियों का हित करने वाली है । अहिंसा ही संसार रूपी मरुभूमि ( रेगिस्थान ) में अमृत बहाने वाली सरिता है । अहिंसा दु:ख रूपी दावाग्नि को शांत करने के लिये वर्षाऋतु की तरह मेघघटा है तथा भव भ्रमणरूपी रोग से पीड़ित पीवों के लिये अहिंसा परम औषधि है । अतः मिथ्यात्वी अहिंसा की महत्ता को समझकर अधिक से अधिक भगवती अहिंसा को जीवन के व्यवहार में उतारे। मिथ्यात्व से मुड़ बना हुआ राजा दत्त अपने कुकर्मो के कारण अशुभ गति में उत्पन्न हुआ। वह धर्म बुद्धि से पशुवध पूर्वक महायज्ञ करता था। पद्म खंडपुर में एक पणिक रहता था। वह जैन धर्मावलम्बी था । उसके सुमित्र दत्तिका नामक भार्या पी। वह जैनधर्म की निन्दा करती थी, देषी पो, विरोधी १-न इति निषेधे स एवंविध कष्टानुयायी। सुष्ठुः शोभन: सर्व सावध विरति रूपत्वादाख्यातोजिनः स्वाख्यातोधौं यस्य स तथा तस्य चारित्रिण इत्यर्थः कलांमागम्-अर्घतिअर्हति षोडशी । उत्त• १ ७ । २० । अवचूरी. २-भ्रमविध्वंसनम् पृ० १३ ३-जीयं (4) अथिरंपि थिरंधम्मम्मि मुणंति मुणिय-जिण-वयणा। -धर्मोपदेशमाला गा ५५ पूर्षि ४-योगशास्त्र २।६. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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