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[ २६४ ] यो फलस्वरूप मिण्यात्व में अनुरंजित होकर, असद्कार्यों के कारण ज्याघ्री रूप में उत्पन्न हुई।
अस्तु षो महामिथ्यात्वी जरा मी पाप से विरति नहीं होते वे संसार-परिभ्रमण से छुटकारा नहीं पा सकते हैं।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने कहा है
दृष्टिश्च तत्त्वार्थश्रद्धानं, ज्ञानं च तत्त्वार्थप्रतिपत्तिः, वृत्त चारित्रं पापक्रियानिवृत्तिलक्षणं। संति समीचीनानि च तानि दृष्टिज्ञानानिवृत्तानि च 'धर्म उक्त स्वरूपं ।
-रत्नकरण्ड० प्रथम परिच्छेद । श्लोक १ । टीका अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धान को ( सम्यग दृष्टि ) कहते हैं, तत्त्वार्थ की जानकारी को ज्ञान कहते हैं तथा चारित्र-पापक्रिया निवृत्ति रूप होता है। मिथ्यात्वी की कुछ अंश में दृष्टि सम्यग भी होती है, ज्ञान भी कुछ अंश में सही हो सकता है तथा आंशिक रूप से पाप से भी विरत होते हैं।
सभी पदार्थ नित्य भी है, अनित्य भी है। आचार्य मल्लिषेषसूरि ने स्याद्वाद मंजरी में कहा है।
सर्वे हि भावा द्रव्याथिकनयापेक्षयानित्याः, पर्यायाथिकनयादेशात् पुनरनित्याः ।
स्याद्वादमंजरी श्लो ५ । टीका अर्थात् सभी पदार्थ द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्य और पर्यायार्षिक नय की अपेक्षा से अनित्य है । अतः मिथ्यात्व नित्य भी है, अनित्य भी है । मत. मतान्तर के आग्रह से दूर रहने पर ही जीवन में रागद्वेष से रहित हुआ जा सकता है । मतों के आग्रह से निज स्वभाष रूप आत्मधर्म की प्राप्ति नहीं हो
१-हरिवंश पुराण प्रथमखंड, सर्ग २७ । ४४, ४५ २-आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदिवस्तु । __ तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वादाज्ञाद्विषतां प्रलापा ।।
-अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका
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