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[ २८० ] सारंभी सपरिग्रही जाण्यां तेहने रे, संकलेस करता जाण्यां , ताम रे। विसुध निरदोषण हुंता तेहनें रे, त्यांने पिण जांण लीया तिण ठाम रे ॥४॥ इण रीतें पंहला तो समकत पामीयो रे, विभंग अनर्माण रो हुवो अवधि गिनांन रे। पछे अनुक्रमें हुवो केवली रे, पछे गयों पांचमी गति प्रधान रे ॥४६॥ असोच्चा केवली हूवां इण रीत सू, मिथ्याती थकां तिण करणी कीध रे । कर्म पतला पारा मिथ्याती थकां रे, तिण सूं अनुकमें सिवपुर लीध रे ॥४॥ जो मिथ्याती थको तपसा करतो नहीं रे, मिथ्याती थको नहीं लेतो आताप रे । क्रोधादिक नहीं पाडतो पातलो रे, तो किण विध कटता इणरा पाप रे ॥४८॥ पेंहले गुणठाणे मिथ्याती थकां रे, निरवद करणी कीधी , ताम रे। तिण करणीथी नीव लागी छै मुगत री रे,
ते करणी चोखी छै सुध परिणाम रे ॥४॥ -भिक्षुग्रन्थ रत्नाकर खण्ड १ मिच्याती रो करणी री ढाल पृ० २६१२१२ (२२) ग्रयों का अध्ययन करने से ऐसा मालूम होता है कि तियच पंचेन्द्रिय भी मिथ्यात्वी अवस्था में सद् अनुष्ठान से भवन पि का भेदन कर सकते है। बावषयक नियुक्ति की टोका में कहा है कि जिनदास श्रावक ने दो बलदों को भक्त प्रत्याखबान कराया तथा नमस्कार मंत्र उच्चारण कर सुनाया। उन्होंने
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