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[ २८६ ] ठाणांग सूत्र में कहा है
तिविहे दंसणे पन्नत्ते, संजहा-सम्महसणे, मिच्छाईसणे, सम्मामिच्छदसणे।
-ठाणं स्था ३ । उ ३ । सू ३९२ अर्थात् दर्शन के तीन प्रकार हैं, यथा-मिथ्यादीन ( अशुभ पुज रूप), सम्यग्दर्शन ( शुद्ध पुज रूप), और सम्यग-मिथ्यादर्शन (मिश्र पुज रूप )।
शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र -ये तीन पुज रूप मिथ्यात्व मोहनीय हैं क्योंकि तथाविध दर्शन-दृष्टि के हेतु है।
शुद्ध पुज आदि कर्म पुद्गल के उदय से प्राप्त हुआ तत्त्व के श्रद्धान को रुचि कहते हैं । रुचि के तीन भेद हैं --
तिविहा रुई पन्नत्ता, तंजहा-सम्मरुई, मिच्छाई, सम्मामिच्छरुई।
-ठाणं स्था ३। उ ३ । सू० ३६३ तीन प्रकार की रुचि (तत्त्व पर श्रद्धान रूप या अश्रद्धानरूप ) कहो गई है-यथा-सम्यग् रुचि, मिथ्यात्वरुचि व सम्यग-मिष्याचि ।
आगम साहित्य में दृष्टि के स्थान पर दर्शन का भी प्रयोग हुआ है लेकिन अनाकारोपयोग के स्थान पर भी दर्शन प्रयोग हुआ है। कहा है -
सत्तविहे दंसणे पन्नत्ते, संजहा-सम्महसणे, मिच्छहसणे, सम्मामिच्छद्द सणे, चक्खुदसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिदसणे केवलदसणे।
-ठाणं स्था ७ । सू ७६ अर्थात् दर्शन के सात भेद है-यथा, सम्यग दर्शन, मिथ्यादर्शन, सम्यगमिथ्यादर्शन, चक्षुदर्षान, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन व केवल दर्शन ।
काल की दृष्टि से मिथ्यादर्शन के तीन विकल्प होते हैं :
(१) अनादि अनंत (२) अनादिसांत (३) सादिसांत । — (१) कमो सम्यगदर्शन नहीं पाने वाले (अभव्य या जाति भष्य) जीवों की अपेक्षा मिथ्यादर्शन अनादि-अनंत है।
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