Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 294
________________ [ २६७ ] अर्थात् वाणव्यंतर देव-देवी सुखपूर्वक वास करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, लीला करते हैं आदि । ये सब पूर्वभव में सद् अनुष्ठानिक क्रिया का फल है । श्री मज्जाचार्य ने कहा है । "ते व्यंतर पूर्बले भवे मिध्यादृष्टिपणे तप शीलादिक भला पराकमे करिव्यंतर पणे उपना । ते भणी श्री तीर्थंकर व्यंतरना पूर्वना भवनो भलों पराक्रम कह्यो ।" - भ्रमविध्वंसनम् अधिकार ११२व दृष्टि तीन प्रकार की होती है - सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादष्टि तथा सम्यगमिषादृष्टि | भगवती सूत्र के तीसर्वे शतक में कहा है कि सम्यग्दृष्टि तियंच पंचेन्द्रिय अथथा मनुष्य - वैमानिक देव को बाद देकर अन्य आयुष्य का बंधन नहीं करता है, सम्यग मिथ्यादृष्टि के अर्थात् तीसरे गुणस्थान में आयुष्य का बंधन नहीं होता है तथा मिध्यादृष्टि जीव नरकगति, वियंचगति, मनुष्यगति, देवगति ( भवनपति, वाणव्यंतर ज्योतिषों वैमानिक देव) के इन चारों हो गति में से किसी एक गति के आयुष्य का बंधन करता है । चूंकि पहले कहा जा चुका है कि देवगति और मनुष्यगति के आयुष्य का बंधन धर्मानुष्ठानिक क्रियाओं के आचरण करने से होता है, अतः सिद्ध हो जाता है कि मिध्यात्वी सद्-अनुष्ठानिक क्रियाओं के द्वारा वाणव्यतर देव का आयुष्य बांधता है, अतः वे वाणव्यंतर देव पूर्व भव में सद् पराक्रम क्रिया फलस्वरूप उनके फल का अनुभव करते हैं । मिथ्यात्वों के शील, तप आदि को सद् पराक्रम कहा गया है । यदि उनका पराक्रम एकांत बसद् होता तो सद् पराक्रम का उनके लिये व्यवहार नहीं किया जाता | (१३) मरुदेवी माता का जीव जीवनकाल पर्यन्त वनस्पति रूप में था । कहा है ततो. यद्गीयते सिद्धांत - मरुदेवा जीवो यावज्जीवभावं वनस्पतिरासीदिति । - प्रज्ञापना पद १८ । सू५ । टीका सांव्यवहारिकराशि और असांव्यवहारिकराशि- ये दो प्रकार के सांसारिक स्त्रीव है । मरुदेवो माता असांव्यवहारिकराशि -- जीव (अनादि निगोद के जीव ) Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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