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[ २५४ ] की वृद्धि होने लगी और सम्यक्त्व की हानि होने लगी। पुन: मिथ्यात्व भाव को ग्रहण किया।
कालान्तर में उस सोमिल ब्राह्मण ने शुभ परिणाम, शुभ अध्यवसाय से शुभलेण्या से सम्यक्त्व को प्राप्त किया। कहा है
तएणं सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे पुग्धपडिवन्नाइपंच अणुव्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ !
-पप्फियाओ वर्ग ३ अर्थात् देव के वचन को सुनकर पूर्व में अंगीकृत श्रावक के बारह व्रतों का स्वयंमेव अंगीकार कर सोमिल ब्राह्मण विचारने लगा।
इस प्रकार सक्रिया से मिथ्यात्वी सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं। निरयावलिया सूत्र में भगनान् ने श्रमणोपासकों को आराधक कहा है।
समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणा आणाए आराहए भव।
-निरयावलिया वर्ग १ अर्थात् श्रमणोपासक अथवा श्रमणोपासिका जिनामा के आराधक होते हैं।
श्रमणोपासक भी पूर्णतया व्रती नहीं होते हैं-व्रतावती होते हैं। अव्रतकी अपेक्षा वे कुछ अंश में विराधक भी हैं। उसी प्रकार मिथ्यात्वी सद्-क्रिया को अपेक्षा देशाराधक है परन्तु सम्यक्त्व की अपेक्षा वह विराधक है।
साधुपर्याय को ग्रहणकर यदि कोई व्यक्ति सम्यग रूप से पालन नहीं करता है। साधुपाय में दोषों का सेवन करता है, माया का आश्रय लेता है तो वह व्यक्ति भूता आजिका की तरह देवलोक में जाकर भी देवो रूप में उत्पन हो सकता है।' अतः मिथ्यात्वी सदक्रिया का पालन सरलता से, माया रहित, निदान रहित होकर करे जिससे वह रागद्वेषात्मक ग्रंथि का छेदन-भेदन करने में समर्थ हो ।
निषधकुमार ने अपने पूर्व भव में ( विरंगदत्त कुमार ) सद् क्रिया से सम्यक्त्व को प्राप्त किया । सिद्धार्थ आचार्य के पास दोक्षा भी ग्रहण की । श्रमणपर्याय का पालन कर ब्रह्मदेवलोक में उत्पन्न हुए ।
(१) पुप्फचूलिया अ १ (२) वन्हिदशा अ१
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