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[ २५७ ] ३तिवेहेणं तिकरणसुद्धणं सुदत्त अणगारे पडिलाभिए समाणे संसारे परित्तीकए, मणुस्साउए निबद्ध ।
-विवागसूयं श्रु २ ( सुखविपाक ) अ० १ अर्थात् सुबाहुकुमार अपने पूर्व भव में-सुमुख गाथापति के भव में सुदत्त अणगार को देख कर अत्यन्त प्रसन्न चित्त से आसन पर से उठता है, उठकर पादपीठ से उत्तरता है। उत्तर कर पादुका को त्यागकर एफशाटिक उत्तरासंग से सुदत्त अणगार के सम्मुख साप्त-अष्ट कदम जाता है, फिर तिक्खुत्ता की पाटी से सुदत्त अणगार को वन्दन करता है, नमस्कार करता है। वंदन-नमस्कार करने के अनन्सर उस सुमुख गाथापति ने शुद्ध द्रव्य तथा त्रिविध त्रिकरण शुद्धि से सुदत अणगार को अशन पान-खादिम-स्वादिम प्रतिलाभित किया, प्रतिलाभित करने पर फलस्वरूप परोत्त संसार कर, मनुष्य की आयु का बन्धन किया।
उपर्युक्त पाठ में 'परित्त संसार' करके मनुष्य का आयुष्य बांधा हैपरीत्त संसार अर्थात अनंत-संसार अपरित संसार का छेदन कर मनुष्य का आयुष्य बांधा है। निर्दोष सुपात्रदान के द्वारा सुमुख गाथापति (प्रथम गुणस्थान में ) ने अनन्त संसार का छेदन कर परीत्त संसारी होकर-मनुष्य के आयुष्य का बंधन किया।
अस्तु सुमुख गाथापति ने सुपात्र दानादि सद् क्रिया से अपरित संसार से परीत संसार किया। मनुष्य के आयुष्य का बंधन कर-काल समय में काल प्राप्त कर हस्तिनापुर नगर में अजितशत्रु राजा को धारिणी रानी की कुक्षि में जन्म लिया। सुबाहुकुमार नाम रखागया। वह इष्ट ऋद्धि मादि का भोग पिहरण करते हुए विचरता था।
श्रीमद् आचार्य भिक्षु ने मिथ्यात्वी के निरवद्य अनुष्ठान के द्वारा संसार परीक्त होना स्वीकृत किया है जैसा कि भिक्षु अन्य रत्नाकर में (खंड १) पृष्ठ २५६ में कहा है
सुलभ थी थो समुख नामें गाथापति रे। तिण प्रतिलाभ्यां अणगार रे॥
मूलभ थापा
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