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करता है । इसके संबंध में आचार्य हेमचन्द्र ने विशेषावश्यक भाष्य की टीका में कहा है
इह कश्चिदनादिमिध्यादृष्टिस्तथाविधगुर्वादिसामग्री सद्मावेऽपूर्वकरणेन मिध्यात्वपुं 'जकात् पुद्गलान् शोधयन् अर्धविशुद्धपुद्गललक्षणं मिश्रपुंजं करोति, तथा शुद्धपुद्गललक्षणं सम्यक्त्वपुंजं विदधाति, तृतीयस्त्वविशुद्ध एवाऽऽस्ते । इत्येवं मदन- कोद्रवशोधनोदाहरणेन पुंजत्रयं कृत्वा सम्यक्त्वपुं जपुद् गलान् विपाकतो वेदयन् क्षायोपशमिकसम्यग् दृष्टिर्भण्यते । x x x
अत्र त्रिपुंजी दर्शनी सम्यग्दर्शनीत्यर्थः । सम्यक्त्वपुंजे तूद्वलितेद्विपुंजी सन्नुभयवान् सम्यग् मिध्यादृष्टिर्भवतीत्यर्थः । मिश्रपुंजेग्ध्युद्वलिते मिध्यात्वपु जस्यैवेकस्य वेदनादेकपुंजी मिध्यादृष्टिर्भवति । - विशेभा० गा ५२९ टीका
अर्थात् कोई अनादि मिध्यादृष्टि जीव तथाविध गुरु आदि सामग्री को प्राप्त कर अपूर्वकरण से मिथ्यात्व मोहनीम के पुज में से मिध्यात्व (मोहनीय) पुद्गलों का शोधन करते हुए अर्धशुद्ध - मिश्रपुंज को करता है और फिर सर्वथा शुद्ध सम्यक्त्व पुरंज करता है । जो पुद्गल अशुद्ध ही रहते हैं उन्हें मिध्यात्व पुज कहा जाता है। - कोद्रव शोधन की तरह मिथ्यात्वी तीन पुंज को करता हुआ उनमें से सम्यक्त्व पुरंज के पुद्गलों का विपाक ( प्रदेशोदय ) से क्षयोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।
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मदन ---
अनुभव करता हुआ
जो मिध्यात्वी तीन पुंज को करता है अंततः वह सम्यग्दर्शनी हो जाता है क्योंकि वह सम्यक्त्व पुद्गलों को प्रदेश रूप से वेदन करता है । इन तीन पुजों में से जब मिथ्यात्वी सम्यक्त्व पुंज उद्वलित करता है और मिश्र पुंज का वेदन करता है तब सम्यग मिथ्यादृष्टि होता है तथा जब मिश्र पुंज उद्वलित करता है और मिथ्या पुंज का वेदन करता है तब मिथ्यादृष्टि होता है ।
षट्खंडागम के टीकाकार आचार्य वीरसेन ने कहा है
तस्थ अधापवत्त-अपुव्व-अणियट्टिकरणाणि तिणि वि करेदि । एत्थ अधापवन्तकरणे णत्थि गुणसेडी । कुदो ? साभावियादो । अयुवकरण
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