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ठाम ठाम सुतर में देखलो रे लाल, निरजरा नें पुन री करणी एक हो । पुन हुवे aिsi तिहां निरजरा रे लाल, तिहां जिन आगनां छै शेष हो ॥ ५६ ॥ रत्नाकर खंड १, पृ० १६
- भिक्षु
अर्थात् स्थान-स्थान पर सूत्रों में देखलो कि निर्जरा और पुण्ध को करणी एक है । जहाँ पुण्य होता है वहाँ निरा भी होती है और जहाँ निर्जरा होती है वहाँ विशेष रूप से जिनाशा है । अन्न, पान, वस्त्र, स्थान, शमन के निरवद्य दान से, सद्प्रवृत्त मन, वचन, काषा से तथा मुनि को नमस्कार करने से पुण्य प्रकृतियों का बंध होता है । अतः कार्य और कारण को एक मान कर पुण्य के कारणों को पुष्य की संज्ञा दी गयी है ।
अस्तु मिथ्वreat को शुद्धक्रिया जिनाशा में है तथा शुद्ध क्रिया की अपेक्षा उसे देशाधक कहा गया है ।
१ (ख) : मिथ्यात्वी को बालतपस्वी से सम्बोधन
देवगति के आयुष्य बंधन के चार कारणों में से बालतप और अकामनिर्जरा भी सम्मिलित है । जिनकी आराधना मिध्यात्वी कर सकते हैं-ठाणांग की टीका में कहा है
प्राणातिपातविरत्यादीनां दीर्घायुषः शुभस्यैव निमित्तत्वाद
उक्तं च
महव्वय अणुव्वएहि य, बालतवोऽकामनिज्जराए य । देवाउयं निबंध, सम्महिठ्ठी य जो जीवो ॥१॥ पवईए तणुकसाओ दाणरओ सीलसंजमविहूणो । मच्छिमगुणे िजुत्तो, मणुयाउं बंधए जीबो ॥२॥
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- देवमनुष्यायुवी च शुभेइति ॥ -ठाणांग सूत्र टीका
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