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[ १३८ । बोधि का अर्थ होता है-ज्ञान-परन्तु इसका पारिभाषिक अर्थ सम्यक्त्व भी किया जाता है । कहीं कहीं बोधि शब्द का अर्थ रत्नत्रय -- सम्यगजान, सम्यग्दर्शन सभ्यगचरित्र मिलता है। धर्मसामग्री की प्राप्ति भी इसका अर्थ किया जाता है । परन्तु ज्ञान-सम्यग शान-सम्यगदर्शन (सम्यक्त्व) की यहाँ प्रधानता है। धर्म के साधनों का सत्य स्वरूप बसलाने की शक्ति भी इसी में है । बोधि को रत्न की उपमा दी जाती है। जैसे रत्न की विशेषता प्रकाश है इसी प्रकार बोधि में भी ज्ञान की प्रधानता है। बोधि की प्राप्ति होना अति दुर्लभ है। आगम में कहा है
चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। माणसत्तसुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ।
- उत्तरा० अ ३गा १ अर्थात् इस संसार में प्राणी के लिए मनुष्य जन्म, धर्मशास्त्र का श्रवण, धर्म पर श्रद्धा और संयम में पराक्रम-आत्मशक्ति लगाना-इन चार प्रधान अंगों को प्राप्ति होना दुर्लभ हैं । उत्तम धर्म का श्रवण प्राप्त करके भी उस पर श्रद्धः होना और भी दुर्लभ है क्योंकि अनादिकालोन अभ्यास वश, मिथ्यात्व का सेवन करने वाले बहुत से मनुष्य दिखाई देते हैं।' शांत सुधारसमें उपाध्याय विनयविषयजी ने कहा है
तदेतन्मनुष्यत्वमाप्यापि मूढो, महामोहमिथ्यात्वमायोपगूढः । भ्रमन् दूरमग्नो भवागाधगर्ने, पुनः क्व प्रपद्यत तद्बोधिरत्नम् ॥
-शातसुधारस, बोधि दुर्लभ भावना। मनुष्य जन्म पाकर के भी यह मूढ़ आत्मा मिथ्यात्व और माया में फंसा हुधा संसार रूप अथाह कूप में गहरा उत्तर कर इधर उधर भटकता फिरता है। (१) लधुण वि उत्तमं सुई, सहहणा पुणरावि दुलहा । मिच्छत्तणिसेवए जणे, समयं गोयमं ! मा पमायए ।
उत्त० अ १०, गा १६
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